Saturday 7 September 2013

औरते काफी सहनशील होती है.......................................


वे जो भी अपने जिंदगी में करती है तो उसे वो दस बार सोचती है| की मेरे पति, पिता, बच्चे और पूरा परिवार को अच्छा लगेगा की नहीं और उसके साथ साथ उसे इस समाज का भी डर तथा शर्म होती है की यह समाज क्या बोलेगा| तो इस लिए जिंदगी की इच्छा पूरी कर नहीं पाती| उस प्रक्रिया में उसे उस बातोका महत्व ही नहीं होता है की, खुद की इच्छा, आकांशाये, और जो जरुरी होता है तो वे सारी बातोंको कुछ पल में ही मार देती है| उसे धीरे धीरे ऐसे लगने लगता है की, मुझे इस तरह से रहना है जैसे, “अगर में खाना नहीं बनाउंगी तो इनका क्या होगा? अगर एक दिन बाहर खाना खा लिया तो क्या हो सकता है| (यह बाहर खाने की बात गरीब लोगोंके घर में तो कर ही नहीं सकते)

जब लडकियोंको पढ़ाया नहीं जाता क्योंकि, उन्हें घर पर काम होता है| क्योंकि उसके बिना घर चल ही नहीं सकता, तो प्रश्न यहा पर यह आता है की, जिनके घरोमे लडकिया नहीं होती तो उनके घर में काम कौन करता है? तो उनके घरमे तो वही औरत जो शादी करके आइ है, और तब तक काम करेगी जब तक वह बूढी नहीं हो जाती या फिर उसके बेटोंकी शादी नहीं होती|

उनमे तो स्वीकार वुत्ती उतनी ही स्ट्रोंग होती है जितनी  वे सहनशील है| मै यह बोलके औरतोको और दबा रही हु| पर में नहीं ऐसा कर रही हु क्योंकि, यह दो बाते उसके पास जन्म से लेकर ही है| जैसे की उसका प्रसूति काल, महावारी के दिन, भारी गहने तथा पोशाख जो वो शुरुवात से पहनते हुए आ रही  है,(पर अभी यह औरते नहीं करती अगर करती भी है तो फैशन के नाम से), समाज के बंदिस्त में जैसे, उचे आवाज से बात न करना, बडोंके पैर छूना, घर का काम उसके नाम, इत्यादी बाते महिलाओने अपने जिन्दगी में स्वीकारा है|

अब साल २०१३, जो है उन युवा पीढ़ी का जो सारे बंदिशोंसे पार हो के स्वतंत्रता के शिखर को छूने की कोशीश तथा उसे हर दिन जी रहे है| अगर वो उन्हें ना मिले तो काफी परेशान होते है| क्योंकि उन्हें ऐसे लगता है की, उनकी स्वतंत्रता छिनी जा रही है और फिर वो उसमे परेशान होते है, उन्हें काफी दर्द होता है| लेकिन फिर वे जागृति में आते है और फिर एक बार अपने जिंदगी को नए सिरे से देखकर फिर से उसकी शुरुवात करते है| क्योंकि उसमे एक आशा, उल्हास होता है की मुझे जीना ही है|

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