Tuesday 26 May 2015

सपनो को भी आझादी पसंद है...........................


लेखक अश्विन बी शाह युवको को कहते है की, “सपना देखना यह उनका हक है”. उसमे किसी भी तरह का डर, चिंता नही है. क्योंकि किशोरावस्था में जो मन और शरीर में बदलाव आते है और उसमे जो भावनिक जरूरत महसुस होती है उसे पूरा करना उन दिनों में नही होता बहुत सारे अज्ञान, अपनी भावनाओ को छुपाने, किसी अपने भावनाओं को साझा न करने की वजह से. यह भावनाए सपनो के रूप में बाहर दिखाई देती है. उसमे कुछ भी बुराई या गलत नही है. उसमे वीर्यपतन तो होना ही है. प्रत्यक्ष रूप में सेक्स करो तो वीर्यपतन होता ही है तो सपनो में भी की जानेवाली क्रिया तो शरीर में दिखने वाली तो है ही?

जीवन के कोई भी सुप्त इच्छाए, कल्पनाये जब पूरी नही हो पाती तब वे सपनो में कही ना कही साकार होते हुए दिखाई देती है. उसके साथ सपनो में अपने मन के बातो को साकार होते हुए देखने का एक अलग ही आनंद है. उसमे केवल हम खुद होते है, उस आनंद को महसूस करते. वे सपने कब पुरे होगे यह पता नही होता लेकिन उसे उन दिनों में पूरा होते हुए देखते हुए एक आयडिया भी तो मिल जाती है की, अपने जीवन को आगे कैसे-किस तरीके से ले जाना चाहिए. आगे वे कहते है की, सपना देखना भी तो विनामूल्य होता है. तो उसे जितना चाहे उतना देख लो. वो और भी कह रहे थे की, अपने उन लैंगिक इच्छाओ को पूरा करना हो तो रात का समय अपने सुंदर नींद में देना ही उचित है.

सिग्मुड फ्रायड का कहना है की सपना देखना याने की आनेवाले जीवन के लिए संकेत है. यह सपने वो सपने होते है जिन्हें दबाकर किसी मन के कोने में रखा है जो सपनो में पुरे होने की कोशिश होती है.

वैसे भी नींद में चलने वाली सपनो का शो भी तो खुद को देखने जैसे होता है. वो इतना जीवित रूप में होता है की कई लोग सपने में बडबडाते है. उन सपनो का पूरी तरीके से आनंद उठाते है. यह सपने ऐसे होते है की जिन्हें जो पुरे होगे या नहीं वह नही पता था. लेकिन उसका आस्वाद लेने का मजा ही कुछ और होता है. इसलिए सपने बेभान देखो. उसे आनंद से जिओ. क्योंकि लैंगिक इच्छाए तो आनंद देणे वाली होती है. लेकिन कई युवक उससे परेशान होते है. क्योंकि उनका काम में मन नही लगता या फिर वे काम नही कर पाते तो ऐसे वक्त में उन्हें यही कहना है की, उसका आनंद उठाओ. जितना उससे भागोगे उतनी ही वे आपके पीछे आएगी. तो उसका स्वागत अपने जीवन में करो.  


अपने एक टीचर का कहना है की, जब आपको लगे की कुछ ज्यादा ही ख्यालो में डूब रहे है तो, अपने दिमाग के रेगुलेटर को कार्यन्वित करो याने की आप अपने सोच पर सोच सकते है. की जो भी मन में आ रहा है उसके बारे में सोचे, उन्हें रोकना यह केवल आपके हाथ में है. तो जब चाहे आप स्विच को on या off कर सकते है. तो है ना अपने दिमाग का कामाल!

Sunday 24 May 2015

रिश्तो की चहल-पहल इंसानियत के धर्म में...................

जिस तरह से, इंसान धर्मो के नाम में विभागों में बटा हुआ है वैसे ही, वो रिश्तो से भी बटा है. वही रिश्ता जो उसके लिए घातक है. वही रिश्ता जो स्त्री-पुरुष इस नैसर्गिक धर्म से अलग कर देता है. पुरुष और स्त्री का काम धर्मो से बाट दिए गए. औरतो ने केवल घर के काम, पुरुषो ने केवल बाहर के काम करने चाहिए. औरतो ने बड़ो के सामने घुंघट लेने चाहिए, तो पुरुषो ने पैसे कमाकर घरवालों का पोषण करना चाहिए. लेकिन अब यह परिस्थिती बदलने लगी है. क्योंकि सारे ही लोग जान गए है की जो काम पुरुष कर सकते वे महिलाए भी कर सकती है.

बाकी रिश्तो की बात कहू तो वो इंसानियत को मारने वाला दूसरा घातक पहलू है. वो इसलिए रिश्तो में इंसान के विचार काफि स्तिमित हो जाते है. वो केवल अपने इर्द-गिर्द सोचता है. वो यह नहीं सोचता की उसके पास जो भावनाए, विचार है उसमे बहुत सारी ताकत है. वो उसके बलबूते पर अपने और दुसरो के जीवन को सुखी कर सकता है.

अगर रिश्ते इंसानों आ गए तो उसकी सीमाए भी तो तय हो जाती है. इसलिए इंसान उस ही हद तक अपने आप को (विचार,भावनओं) को रखता है. उसके आगे वो सोच ही नही सकता. जैसे की घर के छोटे उम्र सदस्य, घर के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय में सहभागी नही हो सकते. कोई भी निर्णय लेना हो तो केवल बड़े लेते है. इसलिए घर के बाकी लोगो को कोई भी हक़ नही होता की वे किसी निर्णय में शामिल हो पाए.


रिश्तो का टैग जीवन एकदूसरे के साथ कई सारे पीडाए पैदा कर देता है. जैसे की, बच्चे अभिभावक का रिश्ता देखो उसमे यह होता है की, अभिभावक सबसे असुरक्षित होते है. अपने बच्चो के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सदा के लिए कोशिश करता है. अगर खुद के पास शक्ति नहीं तब पर भी वो करता ही रहेगा. अगर कुछ अपेक्षा बच्चे की ओर से पूरी ना हो तो उन अभिभावकों को लगता है की, हमने जो अपने बच्चो को किया वो सबकुछ पानी में फेर दिया. और जीवन भर अपने आप को कौसते रहते है. और कई सारे अवधारनाए बनाकर दुखी रहते है. ऐसे वक्त में गलती न माँ-बाप की है ना बच्चे. उनमे केवल असुरक्षितता, डर दिखाई देता है.

रिश्ते कम्युनिकेशन को रोक देता है. क्योंकि उसमें इंसान केवल वैसे ही अपने आप को रहने, दर्शाने की कोशिश करता है. जैसे की, ससुर और बहु का रिश्ता देखा जाए तो वो एकदुसरे के साथ बातचीत क्या एकदूसरे के इर्द-गिर्द भी नही भटकते. एकदुसरे के साथ बात करना याने कुछ तो गलत है ऐसे लोग मानते है. लेकिन अपने जीवन के अनुभवो में मैंने यह दो रिश्ते (कहा जाना चाहिए दो इंसान) देखे है, की वे लोग बहुत बाते करते है. अपने विचारो, जरूरतों को एक घर के सदस्य की साझा करते है. इसलिए ऐसा घर मुझे बड़ा ही आनंद दायी लगा है.

कई बार किसी रिश्ते (पती-पत्नी, बच्चे तथा अभिभावक) को छोड़ने के बाद तो अटैचमेंट तो है ही. लेकिन उनसे दूर जाना बेहद जरुरी है. लेकिन कहते है की लत लग गयी तो वो छोड़ना मुश्किल है लेकिन उन्हें धीरे-धीरे छोड़ा जा ही सकता है. फिर एक बात दिमाग में आती है, किसी रिश्ते में फसने से अच्छा है की इंसानों के साथ फसो ताकि प्यार तो एक ही वक्त में कईयो से हो जाएगा और फिर देखो जीवन को कितना सुंदर हो जाएगा

वैसे देखा जाए तो अगर हर रिश्ते की परिभाषा बहुत सुंदर है. हर रिश्ते का एक रूप, सौंदर्य, रंग, गंध है. उसे केवल उन पूर्व-कल्पनाओ, बने-बनाये हुए विचारो में ना बांधकर उसे रिश्ते को बेहतरीन की ओर ले जाना चाहिए.


Saturday 9 May 2015


सातारा के नागाठाने गाव के अंतर्गत जितने भी पेशेंट को मै मिली, वे अधिकतर महिलाए है. उनमे भी middle adulthood औरते है और कुछ यूथ महिलाए है. पुरुषो का प्रमाण कम है. अधिकतर महिलाए उनके घर के रिश्तो से जुड़े हुए सवालो की वजह से उन्हें मानसिक तौर पर समस्या शुरू हुई है. किसी का बेटा स्कूल नही जाता तो कोई नशे में दंग है तो किसी के बेटे की शादी टूटी, तो कोई अपने पती के संशयी वृती से पीड़ित है. और यह घर की समस्याए कितने सालो से वे लेकर चल रही है. और उसका सीधा परिणाम उनके मानसिक स्वास्थ से जुडा है. कई सारी औरते उनके पती के दबाव के वजह से मानसिक रोगों की शिकार हुई है क्योंकि वे अपने जीवन के खुद के निर्णय ले नही पाई, वे ना कही किसी से मिल पाई, अपनी मनचाही जिदंगी ना जी पाई, उनके जीवन का हिस्सा शादी के बाद वे पूरी तरीके से पती, बच्चे, घर का काम, और उसके साथ खेती या रोजनदारी पर अपने जीवन को चलाया. वे कभी आगे आकर बोल, कह नही पाए. अगर उन्होंने अपनी समस्या को कही भी तो उन्हें उससे निकालने के लिए था भी कौन? क्योंकि उनके घरवाले उन्हें स्वीकारते नहीं. क्योंकि, “जहा तूने शादी की वही तुझे जीना या मरना. हमारे पास अपने पैरो को रखना नही”.

आज उन औरतो के जीवन में यही हुआ. जो पढने, लिखने का वक्त था, तब वे खेती या अन्य कामो के लिए घरवालों ने काम करने के लिए रख दिया, स्कूल नही भेजा. पढने की इच्छा थी. मनचाहे कपडे पिताजी ने नही पहनने दिए. जब शादी करने का समय आया तब उससे पूछा नही की, क्या इस लड़के के साथ शादी करनी है? बच्चे भी घरवालो के मुताबिक़ हुए.

मै अब इस वक्त किसी भी व्यक्ती के उपर कोई दोषा-रोप रख ही नही पा रही हु. लोग बड़े ही नादान थे उनके बचपन में जैसे उनके साथ बड़ो ने व्यवहार किया वे उस चीज को लगातार अपने जीवन में आगे बढ़ते चले. उन्हें वो आजादी, मुक्ति नही मिली जीवन में अपने शरीर, सोच, भावनाओं के प्रती. उनके जीवन के हक़दार वे लोग बने जो उन्हें इस समाज में उनकी तरह बनाना चाहता था और आखिर में जो लोग उसी ही तरीके के जीवन को किसी और के साथ बनवाना चाहते थे. अब उन व्यक्तियों के हाथ में केवल उस व्यक्ती के जीवन को टूटने हुए देखने के अलावा कुछ नही है. वे बस उन बातो को पूरा कर रहे थे जो लोग, यह समाज, उनका बनाया हुआ धर्म चाहता था. बादमे वे खुद भी मरे और उस व्यक्ती की सत्ता वे साथ लेते हुए मरे. और केवल जीवन में दुःख ही दुःख रहा और उससे जुड़े हुए मानसिक, शारीरिक समस्याए रही.

जीवन को ना वे समझे ना किसी और को समझने दिया. वे बस उन सारे विचारों के जंजाल में जीते रहे. अपनी आझादी, विचार, भावनाए खोते रहे. न जाने मरते वक्त उन्हें अपनी जीवन का महत्त्व थोड़ा तो पता चला होगा या नही? लेकिन कई बार तो लोग मरना ही चाहते है, (आत्महत्या कुछ ही लोग करते है) लेकिन जीवन की इस अशांती से इतना हार जाते है की आगे जिंदगी बचती नही.


लेकिन हम जैसे psychologists उन्हें जीवन जीने की उम्मीद से फिर से जाग उठाते है. लेकिन कई बार मदद ना मिलने की वजह से वो उम्मीद थम सी जाती है. मै कुछ नही कर पाती. मै केवल उस परिस्थिती को सुनती हु, समझती हु, अपने किसी साइकोलॉजी फ्रेंड के साथ साझा करती हु. और हमारे पास लिखने और सोचने के अलावा कुछ नही बचता. लेकिन मन में वो आशा होती है की कुछ तो होगा. लेकिन नही होता तो मै खुद हताश होकर कुछ नही कर सकती क्योंकि मन में विचार आता है दुनिया में हर तरीके एक लोग मिलेगे. मेरे मन-मुताबिक़ या मै जो अब सोच रही हु की लोगो को आजादी मिलनी चाहिए ऐसा हो ही नही सकता. क्योंकि जिस दिन यह बात जब सभी पर लागू होगी तो जीवन जीवन नही रहेगा. क्योंकि उसमे संघर्ष दुःख नही होगा. तो ख़ुशी का अहसास नही होगा. हम केवल हसने के लिए हसेंगे. उस हसी के पीछे, सक्सेस नाम की चीज नही होगी. हम इंसान केवल आयी हुई परिस्थति के लिए कोशिश कर सकता है, उसमे कुछ अच्छा लाने की कोशिस करता रहेगा. और यही जिदंगी है. क्योंकि अगर जीवन में चैलेंज आयेगे तो कुछ करने की जीवन में उम्मीद पैदा होगी और कुछ नही तो बस जीवन तो चल रहा है. उसमे उमंग, आशा, अहसास नाम की चीजे बचेगी. इसलिए परेशानी आने को, रोने को, मुझे केवल काम करना है अपने हाथो से, शब्दों से. और यही जीवन है. इसलिए इतना कुछ जीवन के बारे में आयडियल सोचने की जरूरत अब महसूस नही होती. कोई जब चीजे एकदम आयडियल बन जायेगी तो उस आयडियल जीवन का महत्त्व नही बचेगा. इसलिए जीवन के उतार चढाव को स्वीकारो, उसके प्रती, काम शुरू रखना है. 


18 April 2015, 9:42 pm

Wednesday 6 May 2015

काश! यह केस हिस्ट्री फॉर्मेट हर घरो में भी लागू हो जाता.......

किसी बातो, व्यवहार को समझने के लिए जिन्दगी में कोई होगा तो जीना कितना आसान हो जाएगा. क्योंकि कई बार ऐसे होता है, की किसी ने कुछ कहा की लगने लगता है की उसने ऐसे क्यों कहा? किसलिए कहा? और इस वजह से रिश्तो में कितने सारे विचारो के मतभेद होने लगते है. फिर रिश्तो में झगड़े, तणाव निर्माण होना, मनमुटाव होना इस तरह से रिश्तो में उलझने पैदा हो जाती है. इस मामले में सोशल फील्ड में काम करने से लोगो को समझने के लिए मौक़ा पैदा कर देता है. इस शिक्षा में व्यक्ति के पहले के जीवन को जाच-पड़ताल करना बेहद जरुरी होता है जैसे की कोई घटना, बचपन वाला इतिहास, कोई मेडिकल history, व्यक्ती के नाते-सबंध और कई सारे घटक शामिल है.

इन बातो से पता चलता है की, व्यक्ती के जीवन के हर पहलु को देखते हुए हमें यह समझना है की वो ऐसे विचार क्यों करता है, वो इस तरीके से क्यों रहता है? उसने इस तरह के जीवन में कदम क्यों उठाये? इन बातो को समझने के लिए समाज में रहने वाले लोगो के लिए ऐसी संस्थाए निर्माण की गई. ताकि वो लोगो को समझकर उनके लिए क्या बेहतर किया जा सकता है. इसलिए भी अगर कोई क्रिमिनल भी हो तो उसके जीवन को समझकर उसे आगे के जीवन के लिए, नियोजन किया जाता है ताकि आनेवाले कल के लिए वो अपने जीवन को बेहतर बना पाए.


तो ऐसे ही लगता है की यही केस हिस्ट्री फॉर्मेट अपने सामन्य जीवन में पैदा हुआ तो जीना कितना आसान होता. क्योंकि हर घर में कोई किसी को समझकर उसी तरीके के से अपने और अपने सामने वाले के साथ बेहतर रिश्ते बनाने के बारे में सोचता. तो कभी भी ऐसे सुनाई देता होगा, बच्चो की जमती नही उनके माता पिता के साथ, सास और बहु में नोक-झोक इत्यादि. तो ऐसे में लगता है की क्यों ना बहु सास को केस हिस्ट्री फॉर्म भरकर बीवी को समझे और उसके आगे की सोचे की रिश्ते को कितना अच्छा बना पा सकते है यह सोचे. उसमे किसी भी तरह का ना कोई जजमेंट होगा, ना की कोई- रोना-धोना. उस रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए उसकी प्लानिंग की जायेगी. यह सुनने में बडी आदर्श वादी लाइन लगती है. लेकिन ऐसे होने में न जाने कितने साल लगेंगे.

इन रिश्तो में एक ही एजेंडा होना चाहिए की एकदुसरे के साथ जब तक जिंदा है तब तक रहना है, लेकिन जो भी मन-मुटाव है, जो भी गुस्सा, इर्षा किसी के प्रती है उसे जल्द ही जल्द एकदुसरे के साथ बैठकर सुलझा दे ताकि दोनों का रिश्ता बेहतर बना पाए और वे भरपूर जिए, ख़ुशी-ख़ुशी.  


Saturday 2 May 2015

अपने जीवन के विजन को सामने लाना.......................

ज़िंदगी तेजी से बढती जा रही है. हर दिन कुछ ना कुछ मै सिख रही हु. कभी अपने टीचर्स से सीखती हु तो कभी अपने परिवार से, तो कोई अपने काम करने वाले सहयोगी से. तो कभी ऑनलाइन/ऑफलाइन शब्दों से. बहुत कुछ चल रहा. अपनी जीवन की दिशा का अंदाजा थोडा-थोडा आ रहा है. एक तरफ अपना काम और दूसरी तरफ अपनी  ज़िंदगी जो मेरे सामने दिखती है. कभी-कभी पता नहीं चल पाता कि क्या करे? पता नहीं चल रहा है कि जो मै अभी में महसूस कर रही हु वो सच है कि जो होनेवाला है वो सच है. लेकिन कहा जाता है कि जो ज़िदंगी अब चल रही है वही  सच है तब पर भी आनेवाली कल कि बात आती है मन में जिसके लिए दिमाग में अंदर योजनाये चलती रहती है. कुछ योजनाये अपने करीबी लोग अपने लिए बानाते है. तो मन कितने सारे सवालों पर खड़े आ उठता है. 


लेकिन अब यह सवाल आते है तो आने दो, क्योंकि उसकी खोज तो करनी ही है. लगता है की जीवन में संघर्ष आने ही वाला है और ना भी आये. जीवन को आसानी से गुजारा भी जा सकता है. तो यह आसानी, कठिनता तो जीवन का भाग ही है. तो क्यों इससे पीछे हटना, डरना या चिंतित होना. क्योंकि जीवन ऐसा ही है. उसमे भरपूर जिए यही लगता है. जब कभी मैंने लोगो के साथ बातचीत की है बड़े लेवल पर या एकल होकर तो वो कॉलेज के यूथ हो या कोई स्कूल के छात्राए या कोई शादी-शुदा पती-पत्नी या कोई बड़ी उम्र के व्यक्ती हो. उन्हें यही कहना है की जीवन का भरपूर मजा लुटे, उसमे आगे बढे, जीवन को सामना करने का धैर्य आना चाहिए. क्योंकि अपने पास लोग है, अपनी मन की ताकत है. तो क्यों ना हम आगे बढ़ सकते है. इन्ही बातो के साथ जीवन में विजन हो तो जीवन के रास्ते और भी साफ़-सुथरे हो जायेगे. उसमे कभी दिक्कत वाली स्थिति ना आएगी और आएगी भी तो उस को पार होकर जा सकते है. मुझे याद है अपने रिसर्च के डेटा कलेक्शन करते समय एक क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट ने मुझे कहा था जब भी हम चिंतित, परेशानी हो तो अपने जीवन के विजन को सामने लाये तो देखो आगे जाने के लिए मुश्किलें ना आएगी.


तो लगता है की जीवन को जिया जा सकता है, एक मेहमान की तरह हर ख़ुशी, गम को स्वागत किया जा सकता है. अगर ज्यादा ख़ुशी और गम हो जीवन में उसे अपने करीबी दोस्त, परिवार के लोग या अपने कोई mentor से साझा की जा सकती है ताकि उससे जीवन की कठिनता, परेशानी देखने का नजरिया मिलने लगता है. जीवन के सवालों को शब्द मिल जाते है और उन्ही शब्दों को मूर्तरूप दिया जा सकता है. 


संवाद की जरूरत बताये एक दादी जी........................

कल का दिन थोड़ा संघर्षमई था मेरे लिए. एक बाप से उसके बेटे के लिए झगड़ रही थी. वो बता रहे थे उसके 23 साल के बेटे के बारे में, की बहुत शांत स्वाभाव का है, वो क्रिकेट खेलता था, दसवी में उसे एकदम अच्छे नंबर आये है लकिन उसे एडमिशन नही मिला. इसलिए उसने कुछ सरकारी भर्ती में अर्जी दाखिल की थी, लेकिन उसका नुम्बर न आया. इसलिए जब वो घर पर लौटा शाम को, उसने अपने पिताजी को कहा की, “मुझसे गलती हो गई हैऔर वो सो गया. उसके अलावा उसने कुछ भी नही कहा उसके पिताजी को लेकिन थोड़ी देर बाद वो उलटी करने लगा था. सुबह हो जाने के बाद कुछ भी वो नही बोला. उस दिन के बाद से वो बोलना कम ही गया था. उसको किसी रिश्तेदारों के घर भेजा गया. और वहा से आने के बाद उसका जीवन शांत हो गया था. उसके कुछ एक साल बाद उसका ट्रीटमेंट शुरू हो गयी psychiatrist के पास, और अब चार साल हो गये की वो दवाई ले रहा है. चुप-चुप चाप रहता है. पिताजी कह रहे थे की उसी ही दिनों में उसे ट्रीटमेंट के लिए ले जाना चाहिए. उसके साथ बेटा कह भी रहा था की उसे डॉक्टर के पास जाना है लेकिन वो ले नही गये.

मैंने पिताजी से पूछा आप क्या चाहते है अपने बच्चो के लिए तो वो कह रहे थे, की वो किसी अच्छी जगह नौकरी पर लगे. किसी अच्छे हुद्दे पर पहुचे, जैसे की मै इतने बड़े लेवल पर काम कर रहा हु, हर दिन 50 लोगो को मिलता हु, श्रेणी के लोगो को ट्रेनिंग देता हु. तो मै चाहता हु की मेरा भी बेटा उस बड़े हुद्दे तक पहुचे. मै चाहता हु की वो सरकारी नौकरी करे. सरकारी भर्ती के लिए बैठे, एमपीएससी-यूपीएससी परीक्षा दे. वो 2-3 हजार की नौकरी करे यह मुझे पसंद नही.
 
इस बात पर मुझे गुस्सा भी आ रहा था. मैंने अपने आप को थोडा रोककर पिताजी को समझाया की जिस हालत में आपका अपना बेटा है तो उसके साथ आप इस तरह की अपेक्षा नही कर सकते है. पहले तो उसे अपने पिछले जीवन में वापिस जाने की जरूरत है, जो स्पोर्ट्स खेलता था उसमे उसे फिर एक बार ले जाए. उसके दोस्तों के साथ मिलवाये. वो खुद चलकर नही जायेगा बल्कि उसका हाथ पकड़कर ले जाइए. जैसे बचपन में उसको हाथ पकड़कर चलाना सिखाया था वैसे ही, उसे चलाना सिखाइए और धीरे-धीरे हाथ छोड़ दीजिये. (पिताजी का सर नीचे था, कोई भी आय कांटेक्ट मेरे साथ नही था, शायद अपनी गलती को वे महसूस कर रहे होगे), उसके उम्र के दोस्तों के साथ पहले उनसे मिलना शुरू कर दे. क्योंकि उसकी आज की जो लाइफ में पूरी थम सी गई है.

कल देखा मैंने चेहरे पर जीवन के लिए कोई भी भाव नही. खुद में कोई भी आत्मविश्वास नही. की वो आगे बढ़ सकता है. क्योंकि अब वो किसी मानसिक विकार से ग्रस्त है. उसकी रिकवरी तो चल ही रही है पर जो आत्मविश्वास उसने जो खोया है, उसे फिर से पाने की जरूरत है. और मुझे यकींन है की उस लड़के के पिताजी ही कर सकते है. पिताजी बता रहे थे की. उन्होंने इतने सालो से अपने बच्चो के साथ बाते नही की और अपने बीवी के साथ भीक्योंकि वो सवांद नही कर पाएमैंने उनसे कहा की वो कर सकते है, क्योंकि वो कौशल्य उनमे है. क्योंकि वो आज बहुत जगह घूमते है, लोगो से मिलते है, बातचीत करते है. तो अब बारी है की वो अपने परिवार को वक्त दे और खुद को भी अपने लिए वक्त दे.

यह संवाद घर में ना होना कितना ही बुरी तरीके से बच्चो, बाकी लोगो के जीवन में परिणाम करता है. उस पिताजी की माँ भी मुझे कह रही थी. यहापर तो कोई बाते ही नही करता. हर कोई अपने काम में व्यस्त है. लेकिन जब मै बात करती हु तो मुझे अच्छा लगता है. मेरे सर का दर्द कम हो जाता है. यह ६०-७० साल की औरत मुझे सवांद के बारे में बता रही थी की कितना जरुरी है. जो मैंने पढ़ते वक्त जाना, काम करते वक्त जाना. लेकिन घरो में संवाद नही इसलिए कितने सारे प्रश्न उपस्थित हो उठते है. अगर वही परिवार ग्रामीण में रहते हुए, एकदम अंदर की तरफ रहते है तो समस्या और भी गंभीर हो जाते है. लेकिन यही परिवार शहर की तरफ हो भले ही संवाद ना हो घर के अंदर लेकिन दोस्त, पडोसी, मिडिया की वजह से जीवन को अच्छा बनाने की कोशिश खुद से ही लोग करते है उसमे किसी की जरूरत नही होती. तो देखा है मैंने उन लोगो को जिन्होंने अपने जिन्दगी बेहतरी की और ले गए है.