Thursday 23 October 2014

वीटभटटीवरील जीवन.............................

मी दुसर्या वर्षाच्या सोशल वर्क च्या कोर्स मधे असताना, सर्वहारा जन आंदोलन ह्या संघटनेमधे रायगड मधील रोहा व माणगाव ह्या तालुक्यामधे उल्का ताई व् त्यांच्या सहकार्याच्या मदतीने फिल्ड वर्क करीत होते. सुरुवातीच्या काळात आह्मी सगळे विद्यार्थी संघटनेला समजुन घेत होतो. जसजसा दिवस जात होता, आंदोलन, आदिवासीचे हक्क, सरकार मुर्दाबाद अश्या किती प्रकारच्या शब्द जवळचे झाले होते.

एकदा उल्का ताईने आह्मा विद्यार्थाना विटभटटीवर काम दिले होते की विटभटटीकामगाराच्या कामाची, परिवाराची माहिती घ्यायची होती. मी पहिल्यांदा विटभटटीवर पाऊल ठेवले होते, लहानपणी त्याबद्दल कुतुहल होते की ह्या विटा कश्या बनविल्या जातात? अन त्या कश्या रचल्या जातात एकमेकांवर? आणि ती वेळ माझ्यावर आली पाहण्याची.

आह्मी वेगवेगळ्या छोट्या गावातील वाड्यामधे विटभटटी परिवाराला भेट देत असू. भेटीच्या दरम्यान पाहिले की, कर्नाटक मधून जास्तीत जास्त परिवार काम करीत असत. तसेच एकाच गावातील लोक सर्वात जास्त काम करीत जसे शेणवई परिसरातील/वाड्यातील परिवारांचा सहभाग विटभटटीच्या कामासाठी मोठ्या प्रमाणावर होता. आह्मी रोह्या तालुक्यातील रामराज, भातसई, म्हसळा, कातळपाडा ह्या पाडयातील विटभटटीना भेट दिली होती. कामगारांना अतिशय हलाखीचे काम करावे लागत असत. आणि त्यावेळेस उन्हाळयाचे दिवस होते, मग तर कल्पना करुच शकतो की किती त्रास होतो तो? विटभट्टीतील कामगारांचा दिवसभर संपर्क मातीसंगे होत असतो. जास्तीत जास्त करुन नखे टूटने, हातापायांची चामडे निघणे, बोटांमधे चिखल्या होणे ग्लानी ही येत असावी अश्या किती प्रकारच्या शारीरिक व्याधि होत असतात.

ह्या कामात सगळे वयोगटातील माणस काम करतात अगदी लहानांपासुन (१० वर्षावरील मुले)ते मोठ्यापर्यंत काम करतात म्हणजे पूर्ण कुटुंब ह्या कामामधे सामिल होत असे. त्यामुळे ह्या मुलांच्या शाळा ही बुडत असत. तसे तर सरकारच्या स्कीम नुसार साखर शाळा सारखे प्रकल्प असतात पण ते कुठे दिसेनासे झाले होते. दुसरीकडे मुलांना ह्या कामाची ओढ़ लागल्याने अभ्यासाकडे किती लक्ष असत असेल? तसेच जेव्हा ही मुले आपल्या घरी माघारी जातात तेव्हा ही ते जाण्यास तैयार असतील का? आशा प्रकारचे प्रश्न माझ्या मनात उमटतात. अश्या वेळेस भविष्याबद्दल तर खुपच गंभीरता वाटते.

वीटभटटी कामगार जानेवारी किंवा फ्रेब्रुवारी मधे भटटीवर कामाला येतात. अन माघारी आपल्या गावी मे-जून पर्यत निघून जात असे. तोपर्यंत तर शाळेची परीक्षा ही होउन जाते. त्यामुळे मुलांचे वर्ष तर वायाच जाते. काही परिवाराला विचारल्याप्रमाणे त्यांची मुले शिक्षकांच्या मदतीने परीक्षा देतात. परंतु घरी गेल्यानंतर शाळेत जाण्याची आवडही कमी होते, त्यामुळे मुले पुन्हा शाळेत जातील ह्याविषयी शंका निर्माण आहे.

कामगारांना मजूरी जोड़ीद्वारे मिळते म्हणजे पती-पत्नी मिळून ३०० रुपये. प्रत्येकी वैयक्तिक रुपाने प्रत्येकाला  मजूरी मिळत नाही. प्रत्येकी एक हजार विटावर ही मजूरी मिळते. पाचशे-सहाशे विटावर मजूरी मिळत नाही. मजूरी व्यतिरिक्त मजुरांना दर आठवड्याला खाण्यापिण्यासाठी खर्च भेटतो त्यास “खर्ची” म्हणतात. ही खर्ची मजूर गरजेनुसार घेत असतो, कोणी तीनशे घेतो तर कोणी पाचशे घेतो जर जास्त लागले तर मागुन घेतो. तसेच काही मालक ४० किंवा ९० किलो तांदुळ देतो. वेळ आल्यावर दवाखाण्याचा खर्चही देतो. जेव्हा मजुराचे काम पूर्ण होते तेव्हा, मालक हिशोब करतो तेव्हा जे काही अगोदरची खर्ची मजुरांना दिलेली असते ती मजूरी मधून कापून घेतली जाते.

आदिवासी समाजात गनेशचर्तुथी सण महत्वाचा असतो. त्यामुळे काही मजूर लोक, मालकाकडून अगोदरच त्यांची मजूरी एडवांस घेत असतात यास “उचल” म्हणतात. ही उचल १० हजार ते १५ हजारापर्यंत असते. सण झाल्यानंतर जानेवारी मधे ते मजुरीला निघून जातात. जर परतफेड झाली नाही तर ते पुन्हा येत्या वर्षाला काम करतात.

कामासाठी स्थलांतर करने हा यांच्या जीवनाचा भागाच आहे. वर्षाचे सहा महीने ते शेती करतात. त्यानंतर आर्थिक रित्या कोणत्याही प्रकारची उपलब्धता नसल्याने ते त्यांना बाहेर विटभटटीवर काम करावेच लागते. काही लोक आपला परिवार घेउन येतात तर काही परिवारातील कर्ता-धर्ताच एकटाच कामासाठी येतो. विटभटटी जर घराजवळ असे तर, घरी येउन जाऊन काम करतात अगर नसेल तर ते तेथेच विटभटटीवर झोपड़ी बांधून राहतात. 
  
तर अश्या रीतीने विटभटटी कामगारांचे जीवन असते, नाही फक्त आदिवासी पण इतर सामन्य लोकांचे सुद्धा आयुष्य विटभटटीवरील असते.


Monday 20 October 2014

विश्वसनीय रिश्ता डर को मारे आसानी से...............................

रिश्ता मजबूती के उपर टिकाने की जरूरत है ना की डर के मारे. उससे कही तरह के परिणाम व्यक्ति भुगतता है. डरने वाला तो कभी भी सच ना बोले और डराने वाला सिर्फ अपने डर के माध्यम से जो चीज चाहिए उसे पूरा करने की कोशिश करता है. डर एक बात को पैदा करता है की, वो है “पावर” देखने के लिए मिलता है जैसे की टीचर-स्टूडेंट, पती-पत्नी, बड़ा भाई-छोटा भाई, बॉस-नौकर इन के रिश्ते के बिच आड़ आता है.  

जिस गुलामी को कई सालो से कई सालो से पीछा छोड़ा है जो डर के उपर टिकी हुई थी, वो आज भी अस्तित्व में है. अगर डरनेवाले ने हमेशा डरे और  वो इसका प्रतिकार ना करे तो इसका चक्र ना कभी थमेगा उसके डर को मिटाने के लिए खुलेपन से वार्तालाप होने की जरूरत है.

इस चक्र को मिटाने के लिए एक ही शस्त्र है वो यह समझदारी. समझदारी बहुत जरुरी है अपने जीवन के रिश्तो को आगे बढ़ा ले जाने के लिए. आसानी से चीजे पाने के लिए हमेशा डर दिखाने की जरूरत नहीं है. उसके लिए प्यार, मोहब्बत, आदर भी काफी है.


जब हम स्टूडेंट टीचर की बात आती है, उनके बिच में एक विचारो का आदान-प्रदान हो. यह एक ऐसा रिश्ता है जिसमे स्टूडेंट बिना किसी हिचकिचाहट से वो अपने बातो को अपने टीचर के साथ साझा करे. बोलने के लिए उसे कोई भी मन में शंका-कुशंका, संकोच ना हो की, मै कैसे कहू? तो फिर वो बाते अपने पढाई-लिखाई की हो या घर की जिसे वो साझा कर सकता है. यह संवाद इसलिए जरुरी है क्योंकि कुछ बाते ऐसी होती है की बच्चा कभी अपने माता-पिता को बता ना पाए अगर वो ना बता पाया, वही बाते मन में घर करके बैठती है और उससे कई सारी परेशानिया उस बच्चे को अपने भावी जीवन में सता सकती है. इसलिए अगर बच्चा अपने घरवालो ना बता पाए तो अपने अध्यापक को जरुर बता सकता है जिससे आगे बातो को सुलझाने मै मदद हो. 

दूसरी बात ऐसी होती है की, स्कूल की शिक्षण प्रक्रिया ऐसे होती है जिसमे बच्चे को अपने भावनाए, विचारो को देखना, बोलना, अपने आसपास के चीजो परखना, महसूस करना, यह सारी प्रक्रिया बच्चे की शिक्षा जीवन को बेहतर करने के लिए बहुत आसान हो जाती है. इस प्रक्रिया में अगर अपने अध्यापक के साथ अगर बच्चा यह बाते सिखने, जानने के लिए अपने अध्यापक की मदद ले तो क्या बात हो जाए! इसलिए बच्चे की पहली प्रक्रिया अपने अध्यापक के साथ बात करना यह पहला माध्यम है, उसके बाद जब बच्चा सारे हिचकिचाहट, वातावरण के साथ तालमेल बिठा ले तो उसके बाद शिक्षा के उस कार्यक्षेत्र तक पहुचना आसान हो जाएगा. लेकिन शुरुआती अगर स्कूल का माहोल अगदी उसके मन के भीतर डर का घर बैठा ले तो पढाई, लिखाई, खुलेपन में बाते करना यह प्रक्रिया बिच में ही रुक जाती है.


मै यही टीचर के साथ गुजारिश करती हु की वे अपने स्कूल के बच्चो के साथ डर का माहोल से दूर रखे और बच्चो के लिए आनंददायी शिक्षा प्रदान करे. जिससे अध्यापक और बच्चे के बिच में एक स्ट्रोंग, पॉजिटिव रिश्ता बना रहे. 

Sunday 19 October 2014

जीवन और त्यौहार..................................

आजकल दिवाली का मौसम चल रहा है. घरोमे साफ़-सफाई चल रही है, घर में क्या बनाना चाहिए, क्या शोपिंग करनी है इसकी चर्चा हो रही है. कई सारे घरोमे में मिठाई, करंजी, लड्डू, नानखटाई बना रहे है. मैंने आज देखा बेकरी शॉप में कई सारी औरते अपने बच्चे, घर की औरतो के साथ नानखटाई बनाने के लिए याने की बेक करने के लिए आई थी. इतनी तेज गर्मी में दिवाली मनाने को उत्साह काफी गहरा था. एक औरत ने पूछा की कैसे बनाए नानखटाई तो बता दिया उसके बारे में भी बातचीत हुई. फिर कुछ देर बाद और एक औरत से बात हो रही थी. मैंने पूछा कौनसे गाव से हो? वो कहने लगी, जोधपुर से. मुझे ख़ुशी हुई, फिर उनके गाव के बारे में बातचीत शूर हुई. मैंने कहा की आपके यहाँ लव मैरिज होता है क्या? उन्होंने कहा की नहीं. मैंने कहा की आप शहर में रहने के बावजूद भी? तो बोली की, “हां! हमारे यहाँ होता ही नहीं लव मैरिज”.
मुझे याद है जिस राजस्थान के गाव में रहती  थी, वहां के एक लड़की को एक दुसरे गाव के लड़के से प्यार था. वे दोनों की अब शादी भी अलग-अलग जगह हो गई है. लेकिन अब भी एक दुसरे के प्रती प्यार है. कभी अगर मिलना हुआ तो बात करते है एकदूसरे से. लेकिन सच्चाई के पार नहीं जा सकते है. अब उन दोनों के सामने जो व्यक्ति है वही उनके लिए प्यार, हमदर्द, साथी है. जिसे शुरुआत में स्वीकारना हर लडके और लड़की के लिए मुश्किल हो सकता है जब उनकी शादी उनके मर्जी के बगैर हो जाती है.


मै जानती हु उन औरतो की जुबानी जिनके जीवन में उनके मर्जी के बगैर जब शादी हुई तो उन्हें क्या-क्या न सहना पड़ा. खासकर करके जब लैंगिक सबंध की बात करे तो, उनके मर्जी के बगैर शारीरक सबंध होता है तो जिस शारीरक तथा मानसिक पीड़ा से उन्हें गुजरना होता है जिनके बारे में वे सिर्फ अपने करीबी दोस्तों के साथ बात कर सकती है.

कुछ लडकियों की कहानी ऐसी है, जिन्होंने अपने इच्छा के अनुसार शादी की है, वो भी अपने पेरेंट्स के ना-पसिंदागार लड़के के साथ. कई सारे लकडिया इन भागे हुए शादी से अपने जीवन से खुश नहीं रह पाई है. उनके चेहरे पर मुझे ख़ामोशी, शादी का बोझ, दर्द नजर आता है. उनमें से कुछ लड़किया उनके जीवन में अपने हमसफर के मानसिक/शारीरिक हिंसा की शिकार है. कई सारे भागे हुए यह कपल बिना किसी के सपोर्ट (फॅमिली) से रह लेते है, कईयो का खुद का घर नहीं होता तो वे भाड़े से घर खरीद लेते है, साल-दो साल में बच्चा हो जाता है, तब तक वे दोनों काम भी करने लगते है. अगर वे पढ़े लिखे है तो नौकरी अच्छी  मिल जाती है. अगर नहीं तो जो भी काम लिए तो कर लेते है. कुछ लडकिया कहती है की शादी नहीं करनी चाहिए. कईयो तो शादी के बाद प्यार की रची-रचाई definition एकदम से शादी के सच के सामने नीली पड जाती है. और फिर हो जाता है उनके जीवन का संघर्ष कुछ बेहतर करने के लिए. लेकिन अगर वे ना कर पाए तो आये जैसे दिन को वो आगे निकल लेते है, प्यार, आदर, मान-सन्मान इनका नामोनिशान मानो होता है नहीं. वे सिर्फ अपने लिए, खुद के लिए जीते है. फिर एक घर में रहने के बावजूद भी लगता है की वे पडोसी है एकदुसरे से. कई सारे लड़के तो अपनी बीवी की पिटाई करते है, नशे की बीमारी भी आ जाती है. कुछ लडकिया तो अपने मन और शरीर बेचने के लिए भी कम नहीं करती अपने जीवन का गुजारा करने के लिए तो उसमे ना वो अपना पेट पालती है लेकिन उसके साथ-साथ अपने पती और बच्चे का भी.

अगर वे लडकिया पढ़ी लिखी है और उनके पेरेंट्स का सपोर्ट है तो उनके आनेवाले जीवन में कुछ तो अच्छा होने के चांसेस है. लेकिन अगर बगैर किसी सपोर्ट से जीवन तो बेहाल हो जाता है.


लेकिन तब पर भी त्यौहार तो हमसे छूटते नहीं. जीवन में कितने भी सारे चिंताए, परेशानिया हो लेकिन त्यौहारो के वजह से फिर एक बार खुश होने का मौक़ा मिलता है जिंदगी भर के लिए तो नहीं पर कुछ पलों के लिए सही. 

Tuesday 14 October 2014

जनमदिन और उसके पीछे विचार.....................................

हमारे और उनके बीच कितना बड़ा पुल है, जिसे तोड़ने की जरूरत है. मै बात कर रही हु उनके बारे में जो, हमसे बड़े और हम उनसे छोटे. यह फर्क तो रहेगा ही. लगता है की इस वजन को सही में तोलने की जरूरत है.

पापा कहते है की, birth डे सेलिब्रेशन नहीं होना चाहिए. वो इसलिए क्योंकि हमारे पालक ने कभी नहीं किया तो क्यों आपका birth डे करना चाहिए? दूसरी बात कह रहे थे की जो लोग इतने बड़े थे नाम और काम से उन्होंने ने भी तो अपना जनम दिन नहीं मनाया? तो हम क्यों मनाये? उन लोगो के जनम दिन पूरी पब्लिक मनाती है.

अगर मै अपने साइकोलॉजी/काउन्सलिंग के बारे में बात करू तो जनम दिन मनाना चाहिए वो इसलिए की बच्चे को उस दिन के लिए सबको एक साथ आने में भी तो मौक़ा मिलता है की वे अपनी एकदूसरे से ख़ुशी साझा कर सके.

शायद हिन्दू कल्चर में ऐसा था की, घर पर कुछ मीठा बनाया जाता है, बडो के आशिर्वाद लिए जाते है, स्कूल में नए कपडे पहनते थे. आज के जनम दिन तो केक लाना, उसपर मोमबत्ती लगाना, उसे फुकना (वही रोशनी जिदंगी के शुरुआत की) लेकिन उसे फूककर केक काटा जाता है और फिर लोग तालिया बजाते है. कही जगह में बड़े बच्चे, घूमने जाते है, रेस्टोरेंट में रुकते है, शराब पी जाती है. और बहुत सारा खर्चा जिसका जनम दिन मनाने में हो रहा है और जो लोग जनम दिन के मौके पर कुछ तोफे देते है जो की काफी भारी भक्कम होता है.


पढ़ा है की पहला जनम दिन फ़ारो (इस्रायल का राजा) का मनाया गया उसके बाद, ग्रीक से केक आया, फिर यूरोपियन कंट्री में [पार्टी मनाई जाती है. केक को राउंड शेप में होता है क्योंकि वो चन्द्रमा को दर्शाता है और उसके ऊपर लगाये हुए कैंडल्स याने की चन्द्रमा की रोशनी और मोमबत्ती इसलिए भी होती है क्योंकि भगवान आकाश में होते है जिनके लिए यह कैंडल्स होते जिसके जरिये हम खुदा को praise करते है. और जब कैंडल्स को बुझाने का वक्त आता है तो उस वक्त एक विश रखनी होती होती है जो खुदा के पास पहुच जाती है. इस तरह की कहानियाँ बनी हुई है. तो इस हिस्ट्री ऐसे लगता है की यह जनम दिन का कांसेप्ट इंडिया का नहीं है. पता नहीं ढूंड रही थी गूगल में लेकिन मिला नहीं. मै तो बस इतना चाहती हु जनम दिन होता है या नहीं होता है लेकिन एकदूसरे के प्रती प्यार, सन्मान, आदर हो और खुश रहे सब. 

Friday 3 October 2014

बच्चो की बेरंग दुनिया...................................

*हेमलता से आज पहली बार इतनी बाते की, एक बात अच्छी लगी की उसे अंग्रेजी आती है. वो मुझे कह रही थी की मैंने स्कूल में लिखना, पढ़ना सिखा. उसके दो भाई और एक बहन है. वो अपने बच्चे के बारे भी बता रही थी. लेकिन कुछ ऐसा उसके बच्चे के बारे में जानकारी नहीं मिल पाई. उसने अपना नाम पेपर लिखकर दिया और उसके साथ-साथ अखबार भी पढ रही थी. एक बात अच्छा लगा की वो बड़े उत्साह से बात कर रही थी. 

आज एक नयी लड़की से बात कर रही थी, पुर्णिमा*. उसे बोलना ही नहीं आ रहा था. लेकिन वो लिखकर-चित्र बनाकर बात कर रही थी. लेकिन उसका लिखना मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. सिवाय उसके नाम के अलावा.

*कावेरी से बात हुई थी. वो है गुलबर्गा नाम के शहर की, वो अपने पिताजी के साथ पूना में आई थी, लेकिन उसके पापा को किसी ने मारा था. उसके बाद वो पुलिस की ओर से ऑब्जरवेशन होम में आ गई थी.



इन बच्चो की जिंदगी इस तरह से गुजर रही है जहापर पर उन्हें अपने जीवन के लिए ऐसी कोई आशा नहीं है. कुछ बच्चो के जीवन की कहानी ऐसी है जिसमे वे आसानी से बाहर निकले पर कुछ तो उसी में ही फसेगे ऐसे लगता है. पता नहीं जब वे अपने घर में पोहचेगी तो उन्हें अपने उनके लोग किस तरह से पेश आयेगे? क्या उनके साथ उसी तरीके की चीजे फिर से नहीं ना दोहराएगी ना? क्या उन्हें उन्ही जीवन का सामना फिर से करने पडेगा? क्या वे जब यहाँ से बाहर निकलेगी क्या वे अपने जीवन को फिर से रंगों से भर पाएगी? क्या उनके घर वाले उन्हें स्वीकार करेंगे? क्या इन लडकियों का घर मिल पायेगा, अगर ना मिले तो क्या उन्हें एक नयी जिदंगी फिर से मिल पाएगी? क्या वे अपने जीवन को बेहतर बना पाएगी? ऐसे कही सारे सवाल मेरे दिमाग में अब के लिए तैर रहे है?

इन्हें इस तरह के institution के बारे में कुछ भी नहीं पता होता. उन्हें हर वक़्त सिर्फ चिटठी का इंतेजार होता है की उनके घर से या कीस संस्था से कोई तो ले जाने के लिए आ जाएगा.

जब भी मेरी मुलाक़ात इन बच्चो के साथ होती तो मुझे पता न चलता की क्या बात की जाए उनसे? हर एक मुलाकातों में हर एक कहानी मेरे लिए होती थी. उस कहानी के बातों को सुनने का ही काम मिला हो ऐसे लगता है. एक दिन अपने फैकल्टी से बात हुई थी की क्या किया जाए? तो वे कह रही थी की जब भी हम वहा पर जाए उन्हें जो वक्त दे रहे है वही बहुत बड़ी बात/काम है. फिर तब से सिर्फ और सिर्फ इसी उद्देश से जाती थी की इन बच्चो को अपना वक्त तो जितना में दे सकू.

इनकी कहानी एकदम सी फिल्मो वाली लगती है. ऐसे लगता है जो जैसे फिल्मो की कहानी सुन रही हु. कभी कभी उस कहानी को सुनते-सुनते उसे खुली आखे देख लेती थी. अब भी मुझे याद है जब उसने कहा थी की मै दुर्गा पूजा के लिए मम्मी के साथ गई थी और तब मैंने अपने मम्मी का हाथ छोड़ दिया था. तो ऐसे कई सारी कहानियाँ मेरे आँखों के सामने तैरती थी

इतनी कम उम्र में ही इतने सारे जीवन के हालतों को देखना जो इतने दर्दनाक होती है लेकिन उससे वे अपने जीवन में कितने सारे सवालो, विचारो को बना रहे है जो उनके जीवन को बनाके की कोशिश कर रहा है. बस यही ख्वाइश और दुवा करती हु इन बच्चो के लिए की वो अपने जीवन को बेहतर बनाये और ख़ुशीयो से सजाये.

(* नाम बदले हुए है)

परीक्षा और वो....................................

कभी किसी ने बताया ही नहीं की पढाई कैसे की जाती है? कभी लगता है की क्या जरुरी है बताना की पढाई कैसे करनी चाहिए. हर  कोई अपने तरीके से पढ़ लिख सकता है. लेकिन लगता है की जब तक स्कूल में है वहा पर तक ठीक है की पढो या नहीं पढो. वैसे भी कक्षा आठवी तक तो पास किया जाता ही है तो तब तक तो चलेगा, लेकिन जब हम हम अगले कक्षा तक जा रहे तो पढ़ना कैसे है उसके बारे में बात की जा सकती है और आगे की पढने के लिए भी बहुत मुश्किलों का सामना बच्चो को करना पड़ता है. लेकिन तब तक बहुत देरी हो जाती है तो उस पढाई के कौशल्य के बारे में बात करना मतलब कुत्ते के पूछ में पाईप डालने जैसे हो जाता है.

मुझे याद है की मेरे एक स्कूल के हेडमास्टर कह रहे थे अपने स्कूल के बच्चे के बारे में, की इन बच्चो का भविष्य काफी कठिन होगा क्योंकि उनके लिखाई-पढाई के उपर ध्यान नहीं दिया गया. जो की सच है. और मुझे लगता है इस वजह से इन बच्चो की जिदंगी में आगे बढ़ने में मुश्किलें आ सकती है. लेकिन अगर उन्हें ढंग का मार्गदर्शन मिले तो कुछ बात बने.

जब अपने साथ के दोस्तों को देखती हु की वे पढाई-लिखाई कैसे करते है तो बहुत हैरानी होकर उन्हें देखती हु, कभी-कभी पूछ भी लेते हु की कैसे पढ़ लेते हो, तो वे कहते है की वे कर लेते है. इस तरह से बोलना की कर लेते है वाकई में मुझे बहुत ही आश्चर्य लगता है. क्योंकि मेरे लिए बहुत ही मुश्किल होने लगता है. कई लोग घंटो-घंटो एक किताब पढ़े लेते है वो भी एक जगह बैठते हुए मै बैठू तो मेरे नजर किताब के अलावा भी कई सारे जगहों पर होती है और उसके साथ दिमाग में भी कई सारे विचार तैरते रहते है. जानती हु मै बहुत कुछ कर नहीं सकती लेकिन जीतना भी थोड़ा करुँगी वो मेरे लिए जरुरी है और मै अपने आप को भी इशारा भी दे रही हु. 

पढाई, लिखाई exam के वजह से काफी erritation होती है. वो अच्छी लगती नहीं. अपने सर से कह रही थी की यह परिक्षाए होनी ही नहीं चाहिए. परीक्षा के नाम से ऐसे लगता है की हमारे ज्ञान को तोला जा रहा है, वो भी अंको या ग्रेड से. जिससे पता चलता है की कौन कितना होशियार/इंटेलीजेंट है.

हम बात करते है की, व्यक्ती को motivate करो, उसकी प्रशंसा करो, लेकिन उसका मतलब यह नहीं की व्यक्ती के ज्ञान, क्षमता के उपर उसे तोला जाए. क्योंकि जिसे कम मार्क्स आये इसे कितना बुरा लगता होगा. अंदर ही अंदर उसे कितना दर्द होता है वो व्यक्ती ही जाने. अपने जीवन में मुझे उन दौर से गुजरना पडा. अपनी पढाई-लिखाई के वजह से मुझे अपने आप को बुरा महसूस करती थी, कभी कभी मेरे दोस्त मुझसे दूर भागते थे. क्योंकि मै पढाई में अच्छी नहीं, या मै होशियार नहीं हु या मुझे अच्छी मराठी बोलनी नहीं आती, या फिर मै झोपडपट्टी में रहती हु या फिर मेरे पास अच्छे कपडे नहीं है ऐसे कई सारे लेबलिंग से जाना पडा. तो फिर लगता है की, व्यक्ति के उसके बाहरी चीज पर देखा जाता है की वो कितना अच्छा है या नहीं है. लेकिन उसके अंदर गुणों को देखने के लिए किसी ने कोशिश ही नहीं की,. आज शायद इस तरह से चीजे मेरे साथ नहीं होती अगर होती भी है तो उसे अनदेखा कर लेते है. क्योंकि अब अपने अंदर वो आत्मविश्वास, अपने प्रती प्यार है. इस लिए मुझे कोई उचा-नीचा देखने की कितनी भी कोशिश करे तब पर भी मै गिरुगी नहीं. उसके सिवाय ऐसा भी सोचती हु की जो लोग ऐसा सोचते है उनके सोचने का तरिका ही ऐसा हो या उनके जीवन ही इस तरह से बीता हो जिस वजह से वे ऐसा सोचते है.