Saturday 29 November 2014

गली में आज चाँद निकला....................

काम करना काफी आसान होता है. तो वो कोई भी हो की, तो वो स्कूल का काम करना हो या घर-पर खाना बनाना, झाड़ू-पोछा करना हो. एक बार इस काम के प्रती सोच-विचार शुरू हो जाए तो उसके बाद काम करने के दरवाजे खुले होने लगते है. उसके लिए क्यों इतना इंतेजार? मन में एक ऐसे भाव/विचार शुरू हो जहा पर आपको लगे की, “कुछ करना है”, “something which is in action” उसका असर बाहरी और आंतरिक मन में शुरू होने लगता है.

अब देखो ना, मै सोच रही हु की जिस बच्चो के साथ मुझे अब काम करना है, उनके लिए क्या किया जाए की वो बच्चा बोलने लगे? अपने आंतरिक मन को वो दर्शाये, की वो इस वक्त क्या सोच रहा है? क्या चाहता है अपने जीवन में? क्या वो अपनी पढाई-लिखाई करने चाहता है? अपने घर से उसे क्या इच्छाए है? और कई सारी बाते इन बिच में मेरे दिमाग में उस बच्चे के लिए आ रही है. कुछ एक reading डाउनलोड की है, कुछ एक गेम्स बच्चे के लिए सोचा है ताकि मेरा और टीचर का उद्देश पूरा हो जाए.

इंसानों में जीने की चाह हमेशा होनी चाहिए. वो आएगी कब जब वो जान पायेगा उसका महत्त्व खुद के लिए (उसके बाद दुसरे के लिए) जान पायेगे तब ही जीने के लिए आगे सोच पायेगे. जिस दिन जीने की चाह खत्म हो जाती है, एक तो इंसान जीना नहीं है वैसे ही सोचते है, वो कीसी भी कारण से हो सकता है जैसे रिश्ते में उतार-चढ़ाव, कैरियर में असफलता और कई सारे अन्य कारण हो सकते है. तो ऐसे वक्त में कई सारे लोग आत्महत्या कर लेते है या रोजमर्रा जीवन तो जीते है लेकिन हर दिन मरने जैसा होता है. जीने में वो ख़ुशी, उमंग, उत्साह एकदम न दिखने जैसा होता है.

ऐसे वक्त में मुझे लगता है, एक बार वो जीने का उमंग आ जाए तो क्या बात हो जाए? या फिर जीने की चाह उद्दीप्त हो जाए तो तो जीवन बड़ा सुंदर लगने लगता है भले ही अपने भीतर या अपने आसपास में कुछ भी हो उसका अपने खुद के जीवन में इतना कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर पड़े भी तो उससे कैसे सवारना हो यह जान लेते है.

जीवन के लिए जीना बहुत ही सुंदर, महत्त्वपूर्ण बात है. एक दिन अगर पता चले की जीना है, तब देखो दिमाग तेजी से दौड़ने लगता है, ऐसे वक़्त में यह करू की वो करू? ऐसे सवाल आ उठते है. मन तो एक नदी के संथ पाणी की तरह बहता है. ख़ुशी, दुःख, निराशा का अहसास धीरे-धीरे पाणी की तरह बहती है. जिसकी खुद को भनक तक नहीं लगती की मै खुश हु या दुखी हु या उदास हु? जैसे मन की गति धीमे हो जाती है, दिमाग की गती तेजी से दौड़ती है.

तो मेरे साथी, दोस्तों, हमदर्द, यही कहना है जीओ जी भर के, यह जीवन बहुत सुंदर है. इसमें बहुत कुछ करने, देखने जैसा है. जीने के कारण को खोज निकालो, अपनी मन की प्यारी, दिल को छूने वाली बातो को खोजो उसके प्रति कुछ एक ख्वाब को बुनो देखो जीवन कैसे मस्त, आनंददायी दिखने लगता है.

तो अब मेरे मन में दो गाने बज रहे है, एक है, मराठी में है, “हे जीवन सुंदर आहे”. दुसरा हिंदी में, “आज कितने दिनों के बाद गली में आज चाँद निकला”. चलो फिर सुनते है..............................................................

  

Friday 28 November 2014

नए दिन की शुरुआत भाग- १


आज का दिन सुंदर है. अपने जीवन को फिर एक बार नए सिरे से शुरुआत की जा रही है. एक बात समझ में आ रही है की, जीवन में जो चीजे हम करने जा रहे है और जो कर रहे है. वही सच है. क्योंकि इसके अलावा और कोई सच हो ही नहीं सकता. अगर है तो उसे क्रिएट करते है. अपने इस नए जीवन का स्वागत फिर एक बार कर रहे है.

इस नए नए दिन की शुरुआत में हर दिन कुछ नया लिखा जाएगा, अपने जीवन के उस तमाम नए बातों को फिर एक बार लिखी जायेगी

Tuesday 25 November 2014

मेरी माँ मर गई...............................................

आज चौथी कक्षा के बच्चे से बात हुई. मेरे साथ अपनी दोस्त भी थी. टीचर के यह कंसर्न थे की बच्चा बात नहीं करता, उसकी सोतेली माँ है. उसकी दादी उसे संभालती है.

मैने और अपनी दोस्त ने बच्चे के साथ बात करने के लिए शुरुआत की. बच्चे के बारे में उसके परिवार के बारे में पापा, दादी, बहन है. मम्मी का भी जिक्र किया. बहन के बारे में जो उससे बड़ी है और वो काम करती है.

बच्चे के चेहरे पर काफी ख़ामोशी थी. उसकी आखे पानीदार थी. शायद पहली बार मुलाक़ात थी इसलिए थोड़ा डर होगा. उसे बैट-बॉल खेलना पसंद है. अपने कुछ दोस्तों के उसने नाम भी लिए. खाने में पूछा तो कुछ भी नहीं कहा. जितना उसे पूछा उतना ही उसने कहा. जो समझ नहीं आता तो वो चुप बैठ लेता. तो मै उसे फिर से पूछ लेती.


उसे पूछा की पढ़ना पसंद है तो कुछ नहीं कहा. तो पूछा की, चित्रकला करना पसंद है तो कहा की, “हां”! तो उसे एक पन्ना, पेपर, पेंसिल, खोडरबर(इरेज़र), कुछ रंग दिए. तो उसने अपने बहन, खुद और झंडे का चित्र निकाला. उसे अलग-अलग रंगों से चित्रोंको रंगाया.

मैंने उसे उसके रोजमर्रा जीवन के बारे में पूछा, की उसका ध्यान कौन रखता है? सुबह नास्ता के लिए तैयारी कौन करता है? कौन नहलाता  है? कौन कपडे कौन धोता है? उस सबके लिए एक ही जवाब था, “दादी (आई)”. फिर से पूछा की घर में कौन-कौन है. तो उसने सबके नाम लिए, और आखिर में कहा की, “मेरी माँ मर गई....................यह वाक्य उसने हिंदी में कहा बाकी जो भी सवांद उस बच्चे के साथ रहा तो वो मराठी भाषा में था. यह मुझे हमेशा याद रहेगा. बच्चे के आँखे और मुझे पानीदार दिखाई देने लगी. ऐसे वक्त में क्या कहू? कुछ समझ नहीं आ रहा था. अपने दोस्त के भी आँखों में आसू नजर आने लगे. मैंने दोस्त को पानी दिया. वो क्लास से बाहर निकल गई.  बच्चे को क्या बोलू समझ नहीं आया. तब पर भी उसे पूछा की बुरा लग रहा है क्या? वो निरुत्तर था. फिर मैंने कुछ और बाते करने लगी. तब तक उसका चित्र बनाना भी पूरा हो गया. उसे जाने के लिए कहा. अपनी दोस्त को कहा की कुछ कहो. उसने मुझे कल मिलते है कहकर वो भी चली गई. और मै ऐसे अकेले बैठे रह गई. फिर कुछ तो लिखा डायरी में और हेडटीचर को पूछकर मै भी घर की और चल दि. 

Tuesday 11 November 2014

पिछले सेमेस्टर में, मै सरकारी अपस्ताल में फिल्ड वर्क के लिए जाती थी, वहा पर अपनी हैसियत एक स्टूडेंट काउन्सलिंग साइकोलोजिस्ट की थी. लोगो से मिलते थे उसने बातचीत और उनके बच्चो के लेकर तकलीफों को देखते हुए उसपर चर्चा करती थी. वो दिन भी बड़े सुंदर और बेहद तकलीफ देने वाले भी जो बच्चो की सारी माताए उनके बच्चो के तकलीफे, उनके घरेलु परेशानी को मेरे सामने अपने आसुं ओ को मेरे सामने टपकाते थे. ऐसे वक्त में कुछ कहना बेहद मुश्किल होता है उन्हें सिर्फ सुन सकते है और अपने समझदारी के छवि को उनके सामने रख सकती थी ताकि वे थोड़ा हल्का महसूस करे.

अभी तो कोई फिल्ड वर्क नहीं लेकिन आज खुद मै सरकारी अस्पताल में मरीज बनकर गयी थी, वो फीलिंग भी अलग होती है, अपने इस कोर्स में आने से पहले तो मै कइ बार गयी हु लेकिन इस बार तो बहुत अलग लग रहा था. जब मै खिड़की से १० रुपए वाली पर्ची और केस पेपर के लिए कतार में खड़ी थी, तब मै अपने आप को मरीज साबित करने की कोशिश थी लेकिन नहीं हो पा रहा था. क्योंकि अब आदत सी हो जाती है की दुनिया को अलग तरीके से देखने की. की कौन कैसे खडा, है कौन क्या कर रहा है, लोगो के झगडे की कोई कतार में घुसे तो उसे वे धमका या उन्हें गुस्से से बोल रहे थे. कुछ देर बात पंखे के बंद होने का अहसास हुआ , तो सोचा चलो पंखा लगा देते है. लेकिन उस वक्त डर था की कई मेरे कतार की जगह कोई और ना ले जाए तो अपने पीछे के मरीज को मैंने कहा की मै आ रही हु. उसके कुछ देर बात देखा की एक महिला मेरे आगे घुस गयी पर वही कुछ नहीं बोला ना की गुस्सा आया. उसके बाद और एक महिला घुसी. पीछे वाले लड़की ने कहा की कुछ बोलना चाहिए लेकिन मैंने हँसकर टाल दिया, लेकिन न जाने कुछ देर बात मेरा भी मुह खुल गया मै भी अपने आप के हक़ के लिए बोलने लगी की आप बिच में घुसे और और बहुत कुछ उन दोनों औरत को मैंने बोला. तो आखिर में मरीज होने का अहसास आया. काफी थक चुकी थी कतार में खड़े होकर. यहाँ वहा झाकने भी लगी थी की कोई और खिड़की खुले और जल्दी पर्ची और केस पेपर मिल जाये. लेकिन ऐसा होना भी तो मुश्किल था. तो जिस बहाव में सब लोग जा रहे थे वैसे मै भी जा रही थी.


अपने खुद के हक़ के लिए लड़ना बड़ा मुश्किल सा हो गया है. अब तो लगता है की अपनी लड़ाई तो हर तरह के लोगो के साथ है ना की सरकार, या बड़े लोग. हर कोई वर्ग के लोग इस लड़ाई में शामिल है. अगर हम ना कुछ बोले तो कौन कैसे हमें किस खाई में डाल दे तो कुछ पता ना चले. तो जहा पर लग रहा है की अपने साथ कुछ गलत हो रहा है तो जरुर अपने आवाज को उठाना है. और हो सके तो दुसरे के लिए भी तो उस वक्त उस विरूद्ध पार्टियों को उनके हक़ के बारे में बताकर हम और भी किसी के लिए लड़ना आसान हो सकता है लेकिन इसमें यह बात शामिल होने की जरूरत है की वो विरुद्ध पार्टी भी उसी ही समस्या या माहोल में हो ताकि हक के लिए बोलना आसान हो. जो इस माहोल के बाहर हो जाते है उनके साथ बहुत मुश्किल है. उस लड़ाई में कई सारे साधनों का इस्तेमाल करने की जरूरत है ताकि अपने परिश्रम को मीठा फल मिल सके.