Thursday 19 May 2016

कल एक शादी में गई थी. गर्मी एक तरफा और शादी का माहोल अलग जगह अपनी जगह बना रहा था. एक विधी हो जाने के बाद पता चला कि, लडके कि बहन शादी में ना पहुच सकी. इसलिये उसकी राह देखते हुए आनेवाली गतीविधी को रोक दि गयी. अच्छा हुआ किसी ने ऐसे नही बोला कि अपशकून हुआ है. वरना पता चलता ऐसी बाते होती तो कुछ अलग हि झमेला होता. दुल्हे कि शक्ल शादी में देखने जैसे थी. काफी चिंतीत लग रहा था. पुरे शादी में उसका चेहरा काफी सैरभैर था. दुल्हन को देखो तो वो बातो-बातो पर हसी ले रही थी. उसके चेहरे पर शर्म नाम कि चीज नही होती (शर्म होनी चाहिये ऐसे समाज कहता है). लेकीन अच्छा लगा उसे इतना खुश देखकर.
वैसे तो शादी साडे-पाच कि थी. लेकीन लगी सात बजे! और उसमे भी विधी रुकने कि वजह से और आधे घंटे देरी से चल रही थी. लेकीन कोई नही शादी तो हो हि गई. लोग खाना खाने के लिए और दुल्हा-दुल्हन रीसप्शन कि तयारी के लिये चले गये. जैसे हि शादी खत्म हुई. सारे लोग खाने के पीछे लग गये. खाना खाणे के लिये एक लंबी-चोडी line लगी. ऐसे लगा मानो सभी को एक हि वक़्त में भूख लगी हो. शादी का हाँल तो काफी सुंदरता से सजा हुआ था. जहा पर खाने कि जगह थी उसकी भी व्यवस्था ढंग से कि थी.  

अब शादी और खाना दोनो हो गया था. लोगो से लेना और देने के दोनो प्रोसेस पुरे हो गये थे. अब बस सारे लोगो का जाने का समय आ चुका था और लडकी को भी उसके पती के घर! जाते वक़्त तो अक्सर गंभीर माहोल बन जाता है. ऐसे लगता है कि, जैसे कि दुल्हन हमेशा के लिये जा रहि हो. कभी ना लौटे अपने माता-पिता के घर. उनके आसुओ में वो खुश है या दुख है यह समझना उस वक़्त मुश्कील होता है. शादी होने तक तो सारे हि बहुत हि खुश होते है. लेकीन जब लडकी के घर ना जानेवाली बात आती है तो आंखो में आसू आने तक तो रहता नही है. लेकीन इस गंभीर माहोल को देखते हुये लगता है कि, जाते वक़्त रोना हि है ऐसे लगता है. आज तक मैने किसी भी शादी में नही देखा कि, लडकी ख़ुशी-ख़ुशी ससुराल लौटी हो. लेकीन जो चीज अब बनी हो तो उसे बदलना भी मुश्कील है. जब शायद हर लडकी सोचना शुरू कर दे कि उसे वाकई में लडके के घर जाकर रहना है कि अपने खुद के घर(यहा पर खुद का घर वो अपने माता-पिता का भी हो सकता है या उसने खुद से खरीदा हुआ). अगर वो लडके के घर रहने जा भी रही हो तो वो क्यो जा रही है यह वो खुद से सोचना शुरू कर दे. दुनिया क्या बोल रही है यह तो तय है लेकीन एक इन्सान होने के नाते उसके लिये वो जगह कितना जरुरी है. वो यह सोचना शुरू कर दे. 

Wednesday 4 May 2016

लीडरशिप कहे सबका मंगल हो!


लीडरशिप के उपर रोहित धनकर जी ने काफी सुंदर तरीके से हम पुरे टीम को एक सोच दि. काफी गहरी सोच के साथ लीडरशिप के उपर वे बात कर रहे थे. उनकी समझ लीडरशिप को लेते हुये काबील-ए-तारीफ थी.

लीडरशिप में वो मेटाकॉग्निशन कि बात कर रहे थे कि लीडर वो होता है जो अपने सोच पर सोचता है. तो इस बात को सुनकर काफी अच्छा भी लगा क्योंकी इस बारे में अपने टीस के टीचर के साथ बातचीत कि थी. जो काफी लीडरशिप से सबंधित है. क्योंकी जो सोचता है अपने सोच के उपर वो तो कही  ना कही excellence कि ओर पहुचने कि बात है.

दुसरी बात रोहित जी ने कि थी कि, लीडरशिप में दो बाते बेहद जरुरी है. एक तो लीडर स्वयंचेतीत होता. इसलिये मेटाकॉग्निशन का बहुत बडा काम है लीडर के लिये क्योंकी जब किसी भी उतार-चढाव में अपने को वो प्रेरित कर सके, अपने सोच और विचार के उपर सोचे.

दुसरी बात यह था कि, एकदुसरे के साथ कामं करना है. क्योंकी लीडर को अकेले नही बल्की अपने टीम के साथ करे. लीडर के मुल्य काफी महत्त्वपूर्ण है. क्योंकी वही तो लोगो तक पहुच सकते है. और वो उसके टीम से जाना जरुरी है. उसमे एक मुल्य रोहित जी ने बताई कि, लोगो के जीवन में अच्छा करने  कि भावना होना यही तो डेमोक्रॅसी को दर्शाता है. इसलिये लीडरशिप और डेमोक्रॅसी एकदुसरे से अलग नही है. वे हमेशा एकदुसरे को मिले-जुले है. क्योंकी जब डेमोक्रॅसी कि बात आती है तो सभी लोगो के अच्छा हो यही जरुरी है जो एकसरीखा हो.

लीडरशीप और डेमोक्रॅसी दोनो एक हि गाडी के पहिये है. इन दोनो को अकेले में देखना मुश्कील है. क्योंकी दोनो के साथ इंसानो के wellbeing के बारे में सोचना बात करना आसान सा हो जाता है.
वे कह रहे थे कि, लीडरशिप यह कर्मा के उपर निर्भर है. मुझे एक आखरी सवाल छुट गया कि, जो  औरते अपने परिवार के लिये करती है. जिसमे अपने बारे मी कोई वे ख्याल नही कर पाते तो क्या वो लीडरशिप है या सहनशीलता है? इस सवाल का जवाब अभी तो मिल ना पाया. उसकी खोज जारी है.


Sunday 3 January 2016

कम्युनिटी इमर्शन अपने फेलो का............................

कल ही अपने फेलोज, कम्युनिटी इमर्शन के लिए गए है. काफी अलग-अलग सोच उनकी निकलकर आई थी. किसी को घर मिला था तो किसी को नही. कोई जान रहा था की कम्युनिटी में जाकर क्या करेंगे तो किसीको को पता ही नही था की क्या करना है? वे इस अनुभव को तो जीना चाहते है. वे जीना चाहते है उन अनुभवो को जो अब तक उन्होंने नही जिया था. अपने खुद के family की भी थोडी बहुत चिंता थी की घरवालों को बताया जाया जाए या नही? इन तमाम सवालो को वे झेल रहे थे. 

लेकिन इतना तो जान रही थी कि वो इस प्रक्रिया से सीखना चाहते है, आगे बढ़ना चाहते है. आज उनका दुसरा दिन है कम्युनिटी में. मै नही जानती की वो लोग अब इस वक़्त क्या कर रहे होगे? क्या उनको वहा का खाना, बिस्तर, लोग, वहा की एक अलग ही सुगंध/दुर्गंध पसंद आयी होगी या नही? इतना तो जानती हु वो बड़े ही ख़ुशी से इस नये प्रोसेस के लिए चले गए है. उन्हें जाने से पहले जब उनको में टिका लगा रही थी और कुछ बेस्ट वीशेस साझा किया तो अच्छा लग रहा था उन्हे और मुझे भी. मानो कि वे किसी बडे लक्ष्य के प्राप्ती के लिये जा रहे हो. 

वे जानते है की वहा पर उनके साथ क्या हो सकता है तो कुछ लोग नही जानते थे की क्या होगा? वे बस उस अहसास में रहना चाहते थे. लेकिन मै जानती हु यह अनुभव उनके जीवन का बड़ा ही अहम हिस्सा होगा. अपनी एक फेलो कह रही थी की, "जब वो दस साल के बाद इस मुंबई में आएगी तो उसके लिए दुसरे घर के दरवाजे हमेशा के लिए खुले रहेंगे". इस बात से वो काफी खुश है. दूसरा फेलो बता रहा था की, "मुझे एक तमिल परिवार ने मना कर दिया है. उन लोगो के पास जगह तो है लेकिन कोई मुझे रखने के लिए नही मना कर रहा है. देखते है आज जाकर की मुझे घर कहा पर मिलेगा". अपना दूसरा फेलो बता रहा है की, "घर तो मुझे कुछ दिनों के बाद मिलने वाला तब तक स्कूल में रह लूंगा, और खाना एक ताई के पास मिल जाएगा". एक फेलो बता रहा था की, उसे तो पुरे तीन घर मिले है, इस प्रोसेस के लिए जाने से पहले ही उसे घर से खाना दोपहर का मिलने लगा है". यह सुनकर काफी अच्छा लगा कि, वो जाने के लिये तो तैयार तो थे हि लेकीन उसके साथ-साथ वे उन तमाम विचारो, जज्बातो को साथ ले जा रहे थे जो उन्हे community मी रहने के लिये मद्द करेगा. 

दुसरी तरफ जाने से पहले वे उन्हे घर और खाने कि चिंता उनके बातो से आ रही थी. लेकीन इस प्रक्रिया कि वजह से उनके लिये कितनी महत्त्वपूर्ण बात है. इतनी गंभीरता उनके बातो से निकलकर आ रही होगी. कहते है कि घर, कपडा, मकान यह काफी मुलभूत बात है एक इन्सान के जीवन में जो इनसे पता चल रहा था. 

एक फेलो तो बता रही थी की, उसका दोस्त उसे मना कर रहा था इस प्रोसेस में हिस्सा लेने के लिए. कुछ तो घरवालों को बताने के लिए हिचकिचा रहे है. कुछ फेलो ने सोच ही लिया की कोई भी पैसे या कम से कम पैसे ले जानेवाला है तो कोई कह रहा था, की फोन-इन्टरनेट को इस्तेमाल नही करेगा. इन बातो को सुनकर वे काफी गंभीर लगे इस प्रक्रिया को जानने और समझने के लिये. 

कम्युनिटी इमर्शन यह एक ऐसी प्रोसेस थी अपने फेलो के लिये जहा पार उन्हे बहुत कुछ अनुभव करना था, वे जानना चाह रहे थे जीवन के तमाम अनुभव लोगो के मुह्बोली बातो से, वहा पर वे बहुत सारे आयडीयाज को करके देखना चाह रहे थे. उनके जीवन को वे फिर एक बार समझना चाह रहे थे. 

Thursday 17 December 2015

CHILD LINE IN MY REALITY


कल एक family से मुलाक़ात हुई जो रैल्वे स्टेशन के stair case के उपर बैठी थी. लोग उस family को, आते जाते खाना-पैसे दे रहे थे. मैंने देखा तो उन्हें कुछ फल दिए, और कुछ देर के बाद मैंने चाइल्ड line को फोन किया तो उनके वालंटियर्स आ गए. उस औरत से बात की. और यह निर्णय लिया गया की, किसी एक बच्चे के लिए अस्पताल जाना जरुरी था. लेकिन उस बच्चे के पिताजी से माँ को परमिशन लेनी जरुरी थी. वे तो मना करने लगे थे की, बच्चे को अस्पताल नही लेना जाना (क्योंकि उनका रोजमर्रा कमाई के उपर असर हो सकता है, जब की सच्चाई थी). लेकिन उस बच्ची के पिताजी के थोड़ा सा बताना ही पड़ा, उसके साथ साथ रास्ते पर चलनेवाले कुछ लोग पिताजी को समझा भी रहे थे उन्हें. तो वो मान गए. उन्हें child लाइन के जरिये नायर हॉस्पिटल के स्टाफ ने उस बच्चे की ट्रीटमेंट शुरू की. अब उस बच्चे को चार हफ्ता एडमिट करने के लिए कहा गया है.

इस बच्चे के बारे में कहा जाए तो यह बच्चा एकदम से, कुपाषित थी. उसकी उम्र तो करीबन 3 साल की है. लेकिन दिखने के लिए जैसे की, 6-महीने का बच्चा हो. उसका वजन किया तो वह सात किलो और तीनसो ग्राम निकला. जब की तीन साल के बच्चे का वजन 15-20 के करीब होना चाहिए. उस बच्चे को जब मैंने गोद में उठाया था तो उसके केवल हड्डिया मुझे छूह रही थी. तो पता चल रहा था की इस बच्चे की हालात कितनी क्रिटिकल थी. 

इन सब काम में child लाइन के स्टाफ काफी विश्वसनीय मुझे लगे. अब तक केवल उनके बारे में सूना था, लेकिन उनका काम प्रत्यक्ष रूप से रात के बारा बजे तक मुझे देखने के लिए मिला. वे लोग काफी कैरिंग दिखे, उनकी लगातार इस family के साथ काम चल रहा था, तो बच्चे को रस्ते से उठाकर से लेकर अस्पताल में भर्ती होने तक और उसके आगे भी इस चार हफ्ते में उनकी सारे जरुरतो का ख्याल करने वाले है.

उसमे भी एक वालंटियर Childline की, यह कह रही थी की, वो केवल बच्चो के लिए कम करते है लेकिन माँ और पिताजी का खाने की जिम्मेदारी वो अपने घर से करेगी. यह सुनकर बहुत अच्छा लगा. यह मेन हीरो तो इस ऐसे जगह पर भी है. उस पुरे स्टाफ ने काफी रात के 8:30 से लेकर 12 बजे तक वो इस family के साथ रुके थे. उनके खाने, बच्चे के दवाइयों का इन्तेजाम उन्होंने उसी वक्त किया. कुछ एक वालंटियर का निकलने का समय हो गया था, तब पर भी उन्होंने अपना पूरा वक्त बच्चे के एडमिशन होने तक रुके रहे.


Lots of thanks to this Child line volunteer and the people who were helping this family for the treatment of the child. 
आज तो एक कमाल की बात हुई. मेरे ऑफिस के colleague ने मुझे विक्रोली के हाईवे पर छोड़ने के बाद हुआ ऐसे की, मै स्टेशन की और चलने लगी. मुझे दो औरते ठहराकर पूछा की तुम मराठी जानती हो क्या? मैंने कहा की हां बताइये. “उम्होने कहा की उन्हें बेहद भूख लगी है. खाने के लिए पैसे नही है, आज या कल से मुंबई में आये है. उनके बच्चो को मिलने के लिए जो अब पेंटिंग का काम करते है. लेकिन वे पुणे चले गए है. अब पैसे नही है. तो अब मार्गशीष महिना चल रहा है, उपवास है, तुम कुछ खाने के लिए दोगी तो तुम्हे बहुत पुण्य लगेगा. मैंने कहा की चलिए मेरे साथ रेस्टोरेंट में मै आपको खाना खिलाती हु. पर उन्होंने मना किया क्योंकि उनके पास अब गाव (अकोला जिल्हे में शेगाव में) जाने के लिए भी पैसे नही है. तो फिर मैंने उनसे पूछा की खाने के लिए होटल जायेंगे की मै आपको पैसे दू घर जाने के लिए. उन्होंने कहा पैसे दो, फिर मैंने कहा उन्हें की मै आपको 100 रुपये दूंगी. वो राजी हो गए लेकिन और भी पैसे मांग रहे थे, फिर मैंने कहा की इतने ही पैसे है. फिर उन्होंने कहा की ठीक है. रूपये लेने के बाद पूछा मेरे बारे में तो मैंने अपने बारे में कहने की शुरुवात की, “वैसे तो काम ठाने के सरकारी स्कूल में करती हु. मुंबई में रहती हु अपने परिवार के साथ, पुणे के जुन्नर तहसील में आलेफाटा गाव है. वे मेरा गाव नही जानते थे तो मैंने कहा की, मेरे गाव में संत ज्ञानेश्वर ने रेडा से कुछ वेद बुलवाकर लिए थे, तो उसी गाव से मै हु. उसके बाद वे काफी खुश भी हुए. और उन्होंने मुझे डेढ़ सारा आशीर्वाद दिया ऐसे कहकर की, मेरा सबकुछ अच्छा हो जाएगा. कुछ मीठे बोल भी सुनाये. इतना मस्त लगा मुझे उन्हें सुनकर. और फिर मैंने कहा फिर मिलते है शेगाव में. वो मुझे कह रहे थे की, मै उनके लिए संत मुक्ताई हु. न जाने वो ऐसे क्यों कह रही थी. जितना पढ़ा है संत मुक्ताई के बारे में तो वो संत ज्ञानेश्वर की बहन है. उन्होंने काफी श्क्लोक लिखे है. किसी चांगदेव नाम के व्यक्ति की भी गुरु थी.

तब लगता है की, एक भाषा लोगो के जीवन में कितना बड़ा कार्य करवाती है किसी की और से. अगर उस वक्त शायद मराठी ना पता होती तो शायद इतनी लम्बी बातचीत नही होती मेरे उन औरतो के साथ. कैसे एक भाषा अद्भुत तरीके से जीवन में काम करती है.


उसी में से सोच रही हु, भाषा सिखना इतनी नैसर्गिक प्रक्रिया है. और उसमे आजकल भाषा सिखने के लिए मार्किट में पैसे गिने जाती है. नैसर्गिक प्रक्रिया कीतनी मशीन की तरह हो गई है. छोडो इतना सोचोगे तो काम करना मेरे लिए मुश्किल है. जो अब मेरे हाथ में है उसे तो कर ही सकते है.   

Friday 6 November 2015

बाळ आणि ते जोडप.....................


बाळ कोणाला असायला हवे की नव्हे अस समाज ठरवतो आणि काही स्वताच्या जीवनातील कल्पना मानव साकारीत असतो. म्हणून त्यानुसार एका बाळाचा जन्म होतो. लग्न झाल्यावर बऱ्याच स्त्रियांना वाटत की मूल असायला हव. आणि नाही झाले तर सुरु होतो अनेक डॉक्टरांच्या  फेऱ्या आणि इथेही नाही झाले तर आहे आपले दैवत ज्यांच्या कड़े गेल्यावर मनातील अनेक विचार-भावनांची इच्छापूर्ती होईल अशी आशा बाळगतात. कधीतरी चमत्कार होतो तर कधी दैवत बदलत असतात. 

जेव्हा मी childlessness ह्या पुस्त्केची प्रस्तावना वाचायला घेतली तिथे असा प्रश्न आला की महिला किंवा एकाध जोडप किंवा त्या परिवारातील लोक असे का नाही म्हणत की आह्माला बाळाला जन्म देण्याची काय गरज? अस कोणी स्वताला विचारित नाही का? एका बाजुला ती एक शारीरिक/मानसिक/सामाजिक गरज होऊन बसते तर दूसरीकड़े आपणच स्वताला प्रश्न विचारायला हवा वास्तविकतेला धरून की खरच बाळची गरज आहे का?  

अनेक वेळा महिलांच्या अनुभवातून ऐकले की, लग्न झाल्यानंतर महिलेला वाटत की आता बाळाची चाहुल लागायला हवी. ते कशापायी होते. तर त्याची अनेक कारण आहेत, एक तर स्वतापासून एक बाळ असयाला हवय ज्याला म्हणू शकतो की लैगिक/भावनिक गरज आहे. दूसरी कड़े समाजाने (संकुचित वुत्तीच्या लोकांनी) लग्न झाल्यावर वर्षभरात पाळणा हलायला हवाय असा स्वताच्या अपेक्षेचे दार त्या जोड़प्यास खुले करून देतात.

एक गोष्टींचा विचार करीत होते की, पुरुषांना असे कधी वाटते का त्यांना बाळ असायला हवे? ते कधी अस म्हणतात का आता लग्न झाले मला बाळ हवे. एक तर ऐकले होते की बाळ हवय पण तो सुद्धा मुलगा कारण आडनाव/बापाचा वारसा पुढे नेण्यासाठी बाळ(मुलगा) हवाय.


एकंदरीत वाटते की, ज्याचा त्याचा प्रश्न, त्यांच्या गरजेनुसार ठरवावा की, मूल हवे की नको. हव असेल तर त्याची पूर्वतैयारी करायला हवी. जेणेकरून त्या व्यक्तीची जडण-घड़ण योग्य रित्या करता येईल आणि त्याचबरोबर पोषणकर्त्याचाही विकास त्या बाळासंगे होईल.   

Tuesday 3 November 2015

संशयी वृत्ती त्यांच्या दोघामधे.......................


पती-पत्नी मधील संशय पाहून असे वाटते की, ते फक्त घाबरलेले आहे एकमेकांपासून जर दूर झालो तर. किंवा ते असे मानून असतात की, जर माझा नवरा/बायको दूसरी कड़े गेला तर, माझे काय होइल. ह्या विचारांनी त्याना ग्रासून ठेवलेले असते. अशा वेळेस ना ते स्वता जगतात की आपल्या पाटर्नर ला जगुन देत असतात. सतत भयाच सावट त्यांच्या आयुष्यात वेगवेळया संशयाने येरझारा घालित असतात.
ज्या नात्यात प्रेम, काळजी फुलायला हवी तेथे फक्त नी फक्त भितिपोती राग, द्वेष निर्माण झालेला असतो. तेथे ते कधीही खुश राहू शकत नाही. तेथे भावनिक रित्या ते जोड़प अगदी पिळन गेलेले असते. स्त्री/पुरुषांच्या प्रत्येक शब्द, वेशभूषा, नाती-गोती ह्या प्रत्येक गोष्टीत संशयाचा कल्लोळ मांडलेला असतो.

पीड़ित व्यक्ती आपल्या आवडी-निवडी कुठेही दर्शावु शकत नही. स्वताचा स्वतंत्र ते हिरावून बसलेले असतात. असे वाटते की जर संशियित व्यक्तीला कळले तर काय अवस्था होईल. वाचा तर अगदी त्यांची तर अगदी बंदच झालेली असते.

एकदा ट्रेन मधे बसले असताना, समोरून एका मुलीला फोन येत असतो. त्यावेळस फोन येतो तिच्या प्रियकराचा फोन उचलते अन त्याला बोलायला सुरुवात करते की, “तुला माझा पासवर्ड कशाला हवाय. ते घेउन तो काय करशील, मी तुला नाही देणार. पर्सनल गोष्टी पर्सनलच ठेवाव्या” पती म्हणतो की, “पती-पत्नी मधे पर्सनल असे काहीही नसते, त्यांच्या मधे सगळया गोष्टी उघड असतात. त्यात मेल मधे लपवीण्यासारखे काय आहे?” ह्या संभाषनातुन एकच वाटले की, मुलीने तर कधीच आपल्या पतीकडून कोणत्याही गोष्टीचा पासवर्ड नाही मागितला. दूसरी गोष्ट की, सगळया गोष्टीची माहिती त्या पतीला माहीत असायला हवी अशी सक्ती पती पत्नीला करतो. तीसरी गोष्ट अशी वाटली की, स्वताचे व्यक्तिमत्त्व नसलेल्या पती, आणि पत्नीचे हि व्यक्तिमत्त्व नाहीसे करायला निघालेला तो पती होता. तो फक्त आपल्याच जाळयात अडकवू पाहत होता तिच्या पत्नीला. तिचा रोज कोणाशी सवांद होतो, काय होतो, कसा होता ह्या सगळ्या गोष्टीचे रिपोर्टिंग त्याला हवे असते.

एकदा तर एका मुलीने तिचे अनुभव असे सांगितले की, तीला तिच्या एडमिन डिपार्टमेंट मधून एक फॉर्मल मेल आला, त्या मेल ची सुरुवात “डिअर” अशी होती त्यामुले तिच्या बॉयफ्रेंड ने तिचे अकाउंट उघडून, असे मेल केले की, “please use Mrs Sumita rather than Dear Sumita”.  असा रिप्लाई पाहून त्या मूलिस धक्काच बसला. तसेच तिच्या साठी हि गोष्ट पण शरमेची होती की तिचे एडमिन डिपार्टमेंट काय विचार करत असतील.


तर अशा प्रकारच्या घटना ह्या संशयीवृत्ती मुले दोन प्रेमाच्या जीवनाचे नाते संपुष्टात येण्या सारखेच असते.