Sunday 24 May 2015

रिश्तो की चहल-पहल इंसानियत के धर्म में...................

जिस तरह से, इंसान धर्मो के नाम में विभागों में बटा हुआ है वैसे ही, वो रिश्तो से भी बटा है. वही रिश्ता जो उसके लिए घातक है. वही रिश्ता जो स्त्री-पुरुष इस नैसर्गिक धर्म से अलग कर देता है. पुरुष और स्त्री का काम धर्मो से बाट दिए गए. औरतो ने केवल घर के काम, पुरुषो ने केवल बाहर के काम करने चाहिए. औरतो ने बड़ो के सामने घुंघट लेने चाहिए, तो पुरुषो ने पैसे कमाकर घरवालों का पोषण करना चाहिए. लेकिन अब यह परिस्थिती बदलने लगी है. क्योंकि सारे ही लोग जान गए है की जो काम पुरुष कर सकते वे महिलाए भी कर सकती है.

बाकी रिश्तो की बात कहू तो वो इंसानियत को मारने वाला दूसरा घातक पहलू है. वो इसलिए रिश्तो में इंसान के विचार काफि स्तिमित हो जाते है. वो केवल अपने इर्द-गिर्द सोचता है. वो यह नहीं सोचता की उसके पास जो भावनाए, विचार है उसमे बहुत सारी ताकत है. वो उसके बलबूते पर अपने और दुसरो के जीवन को सुखी कर सकता है.

अगर रिश्ते इंसानों आ गए तो उसकी सीमाए भी तो तय हो जाती है. इसलिए इंसान उस ही हद तक अपने आप को (विचार,भावनओं) को रखता है. उसके आगे वो सोच ही नही सकता. जैसे की घर के छोटे उम्र सदस्य, घर के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय में सहभागी नही हो सकते. कोई भी निर्णय लेना हो तो केवल बड़े लेते है. इसलिए घर के बाकी लोगो को कोई भी हक़ नही होता की वे किसी निर्णय में शामिल हो पाए.


रिश्तो का टैग जीवन एकदूसरे के साथ कई सारे पीडाए पैदा कर देता है. जैसे की, बच्चे अभिभावक का रिश्ता देखो उसमे यह होता है की, अभिभावक सबसे असुरक्षित होते है. अपने बच्चो के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सदा के लिए कोशिश करता है. अगर खुद के पास शक्ति नहीं तब पर भी वो करता ही रहेगा. अगर कुछ अपेक्षा बच्चे की ओर से पूरी ना हो तो उन अभिभावकों को लगता है की, हमने जो अपने बच्चो को किया वो सबकुछ पानी में फेर दिया. और जीवन भर अपने आप को कौसते रहते है. और कई सारे अवधारनाए बनाकर दुखी रहते है. ऐसे वक्त में गलती न माँ-बाप की है ना बच्चे. उनमे केवल असुरक्षितता, डर दिखाई देता है.

रिश्ते कम्युनिकेशन को रोक देता है. क्योंकि उसमें इंसान केवल वैसे ही अपने आप को रहने, दर्शाने की कोशिश करता है. जैसे की, ससुर और बहु का रिश्ता देखा जाए तो वो एकदुसरे के साथ बातचीत क्या एकदूसरे के इर्द-गिर्द भी नही भटकते. एकदुसरे के साथ बात करना याने कुछ तो गलत है ऐसे लोग मानते है. लेकिन अपने जीवन के अनुभवो में मैंने यह दो रिश्ते (कहा जाना चाहिए दो इंसान) देखे है, की वे लोग बहुत बाते करते है. अपने विचारो, जरूरतों को एक घर के सदस्य की साझा करते है. इसलिए ऐसा घर मुझे बड़ा ही आनंद दायी लगा है.

कई बार किसी रिश्ते (पती-पत्नी, बच्चे तथा अभिभावक) को छोड़ने के बाद तो अटैचमेंट तो है ही. लेकिन उनसे दूर जाना बेहद जरुरी है. लेकिन कहते है की लत लग गयी तो वो छोड़ना मुश्किल है लेकिन उन्हें धीरे-धीरे छोड़ा जा ही सकता है. फिर एक बात दिमाग में आती है, किसी रिश्ते में फसने से अच्छा है की इंसानों के साथ फसो ताकि प्यार तो एक ही वक्त में कईयो से हो जाएगा और फिर देखो जीवन को कितना सुंदर हो जाएगा

वैसे देखा जाए तो अगर हर रिश्ते की परिभाषा बहुत सुंदर है. हर रिश्ते का एक रूप, सौंदर्य, रंग, गंध है. उसे केवल उन पूर्व-कल्पनाओ, बने-बनाये हुए विचारो में ना बांधकर उसे रिश्ते को बेहतरीन की ओर ले जाना चाहिए.


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