*हेमलता से आज पहली बार
इतनी बाते की, एक बात अच्छी लगी की उसे अंग्रेजी आती है. वो मुझे कह रही थी की
मैंने स्कूल में लिखना, पढ़ना सिखा. उसके दो भाई और एक बहन है. वो अपने बच्चे के
बारे भी बता रही थी. लेकिन कुछ ऐसा उसके बच्चे के बारे में जानकारी नहीं मिल पाई. उसने
अपना नाम पेपर लिखकर दिया और उसके साथ-साथ अखबार भी पढ रही थी. एक बात अच्छा लगा
की वो बड़े उत्साह से बात कर रही थी.
आज एक नयी लड़की से बात कर
रही थी, पुर्णिमा*. उसे बोलना ही नहीं आ रहा था. लेकिन वो लिखकर-चित्र बनाकर बात
कर रही थी. लेकिन उसका लिखना मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. सिवाय उसके नाम के
अलावा.
*कावेरी से बात हुई थी. वो
है गुलबर्गा नाम के शहर की, वो अपने पिताजी के साथ पूना में आई थी, लेकिन उसके
पापा को किसी ने मारा था. उसके बाद वो पुलिस की ओर से ऑब्जरवेशन होम में आ गई थी.
इन बच्चो की जिंदगी इस तरह
से गुजर रही है जहापर पर उन्हें अपने जीवन के लिए ऐसी कोई आशा नहीं है. कुछ बच्चो
के जीवन की कहानी ऐसी है जिसमे वे आसानी से बाहर निकले पर कुछ तो उसी में ही फसेगे
ऐसे लगता है. पता नहीं जब वे अपने घर में पोहचेगी तो उन्हें अपने उनके लोग किस तरह
से पेश आयेगे? क्या उनके साथ उसी तरीके की चीजे फिर से नहीं ना दोहराएगी ना? क्या
उन्हें उन्ही जीवन का सामना फिर से करने पडेगा? क्या वे जब यहाँ से बाहर निकलेगी
क्या वे अपने जीवन को फिर से रंगों से भर पाएगी? क्या उनके घर वाले उन्हें स्वीकार
करेंगे? क्या इन लडकियों का घर मिल पायेगा, अगर ना मिले तो क्या उन्हें एक नयी
जिदंगी फिर से मिल पाएगी? क्या वे अपने जीवन को बेहतर बना पाएगी? ऐसे कही सारे
सवाल मेरे दिमाग में अब के लिए तैर रहे है?
इन्हें इस तरह के
institution के बारे में कुछ भी नहीं पता होता. उन्हें हर वक़्त सिर्फ चिटठी का
इंतेजार होता है की उनके घर से या कीस संस्था से कोई तो ले जाने के लिए आ जाएगा.
जब भी मेरी मुलाक़ात इन
बच्चो के साथ होती तो मुझे पता न चलता की क्या बात की जाए उनसे? हर एक मुलाकातों
में हर एक कहानी मेरे लिए होती थी. उस कहानी के बातों को सुनने का ही काम मिला हो
ऐसे लगता है. एक दिन अपने फैकल्टी से बात हुई थी की क्या किया जाए? तो वे कह रही
थी की जब भी हम वहा पर जाए उन्हें जो वक्त दे रहे है वही बहुत बड़ी बात/काम है. फिर
तब से सिर्फ और सिर्फ इसी उद्देश से जाती थी की इन बच्चो को अपना वक्त तो जितना
में दे सकू.
इनकी कहानी एकदम सी फिल्मो
वाली लगती है. ऐसे लगता है जो जैसे फिल्मो की कहानी सुन रही हु. कभी कभी उस कहानी
को सुनते-सुनते उसे खुली आखे देख लेती थी. अब भी मुझे याद है जब उसने कहा थी की मै
दुर्गा पूजा के लिए मम्मी के साथ गई थी और तब मैंने अपने मम्मी का हाथ छोड़ दिया
था. तो ऐसे कई सारी कहानियाँ मेरे आँखों के सामने तैरती थी
इतनी कम उम्र में ही इतने
सारे जीवन के हालतों को देखना जो इतने दर्दनाक होती है लेकिन उससे वे अपने जीवन
में कितने सारे सवालो, विचारो को बना रहे है जो उनके जीवन को बनाके की कोशिश कर
रहा है. बस यही ख्वाइश और दुवा करती हु इन बच्चो के लिए की वो अपने जीवन को बेहतर
बनाये और ख़ुशीयो से सजाये.
(* नाम बदले हुए है)
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